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अंधेरे में एक लौ प्रकाश की !!

राष्ट्र में आज व्यापक मानसिक तनाव, मजहबी व्यग्रता और मानवीय रिश्तों में खिंचाव बढ़ रहा है। तो ऐसे महौल में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से आई खबर (हिन्दुस्तान टाइम्स, लखनऊ, 21 अप्रैल 2022, पृष्ठ—4 कालम तीन से पांच) अत्यंत समुच्चय तथा सामंजस्य की बानगी है। रमजान के पाक माह में मुस्लिम विश्वविद्यालय के परिसर में बीए के छात्र फरीद मिर्जा ने कल हनुमान चालीसा तथा गायत्री मंत्र का सार्वजनिक पाठ किया। हालांकि फरीद ने बड़ा खतरा उठाया। इस्लामी कट्टरजन, खासकर मुल्ला तथा ईमाम, इस युवक को जातबाहर कर सकते हैं। काफिर करार दे सकते हैं। कह सकते है कि वह बहुलतावादी हो गया। अत: अनीश्वरवादी है।

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क्या संयोग है ? यही दौर था ठीक पांच सदियों पूर्व (29 अप्रैल 1526) जब भारतीय सुलतान इब्राहीम लोधी को उजबेकी लुटेरे जहीरुद्दीन बाबर ने पानीपत की रणभूमि में मार डाला था। उस समय सार्वभौम हिन्दुस्तान कुछ संभल रहा था। लंगड़े लुटेरे तैमूर के संहार से भारत पीड़ित था। कुशल सुलतान बहलोल लोधी उत्तर भारत को संवार चुका था। मगर पंजाब के गवर्नर दौलत खान लोधी ने नये सुलतान इब्राहीम सुलतान को मारने बाबर को आमंत्रित किया था। इस हिन्दुस्तानी गद्दार ने समरमंद के बटमार को हमले की दावत दी थी। फिर जैसे राम, कृष्ण और काशी की आस्थास्थावाले स्थानों को भग्न किया गया वह प्रक्रिया सदियों तक चली।

इस परिवेश में आज सांप्रदायिक सौहार्द हेतु छोटा सा कदम भी कोई शिक्षित युवा उठाये तो बड़ा हर्षद वाकया होगा। इसीलिये फरीद मिर्जा द्वारा ईशस्तुति सुनकर भारत की मूलभूत एकता बलवती होती है। तोड़क, विभाजक तो इतिहास में असंख्य रहे। मरहम लगाने वाले मिर्जा जैसे बिरले ही हुये।

यहां कुछ अवधारणाओं का उल्लेख हो जाये। भारत, बल्कि समस्त जम्बूद्वीप एक था। जैसा अल्लामा इकबाल ने लिखा : ”मिटती नहीं हस्ती हमारी।” मगर कराची में काठियावाडी हिन्दू मछुवारे का कराचीवासी पोता मोहम्मद अली जिन्ना जन्मा और राष्ट्र को खण्डित कर डाला। धर्म केन्द्रों में आज जहांगीरपुरी जैसा बढ़ता अतिक्रमण सभी के संज्ञान में है। नयी दिल्ली के चौराहों पर बने उद्यानों को देख लें, सभी में मस्जिदें निर्मित हुयी है। यह सार्वजनिक संपत्ति है जिसे चन्द खुदगर्जों ने कब्जाया है। अंग्रेजी साम्राज्यवादियों ने भी अपराधिक मदद दी हैं। वर्ना स्वतंत्रता के तुरंत बाद राम और कृष्ण के जन्मस्थल और द्वादश शिवलिंग का प्रमुख विश्वनाथ परिसर तो उनके असली हकदारों को दिया जा सकता था। आजाद भारत का तकाजा था। पाकिस्तान के रुप में दारुल इस्लाम तबतक हासिल कर लिया गया था। मगर विभाजन बजाये समधान के अनंत विकराल समस्यायें सर्जा गया। आंतक खासकर।

आम जन का प्रश्न होगा कि आखिर मजहब बैर तो सिखाता नहीं तो फिर धर्म स्थलों पर हिंसा और ऐसा वीभत्स क्यों? इतिहास की विकृतियों को ठीक करने हेतु जिससे ​छीना गया उसका सवामित्व हिन्दुओं को लौटाया जाये।

एक खास मुद्दे पर यहां निर्णय होना आवश्यक है। सार्वजनिक स्थलों, मसलन फुटपाथ आदि पर, जबरन धार्मिक कब्जा हटाया जाये। सर्वोच्च न्यायालय से लेकर जनपद अदालतें कई बार विवादों का हल सुझा चुके हैं। बस आम स्वीकृति मिलनी शेष है।

ऐसे इस्लामी और ब्रिटिश अतिक्रमणों को नेस्तानाबूत करने की बिस्मिल्लाह चांदनी चौक स्थित गुरुद्वारा शीशगंज से हो। यहां मुगल कोतवाली (17 नवम्बर 1675) होती थी। इसी जगह कश्मीरी पंडितों के जबरन धर्मांतरण कराने का विरोध नवम सिख गुरु तेग बहादुर ने किया था और ठीक आज ही ढाई सदी पूर्व उन्होंने अपना बलिदान दिया था। इस त्यागभूमि को वस्तुत: सिख उत्सर्ग तथा आस्था स्थल के नाम पर दे देना चाहिये। सिखो का हक है, मुगलों के वंशजों का नहीं। यह गमनीय है। इसी भांति अवैधरुप से अधिकृत ऐतिहासिक स्थलों को भी मुक्त किया जाये।

याद रखें यदि कब्जायी अवैध भूमि पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया आदेश ईमानदारी से राज्य सरकारें लागू करें तो आइन्दा से नालों पर शिवाले तथा चौराहों पर मजार नहीं दिखेंगे। यातायात भी सुगम हो जाएगा। धर्म की आड़ में धंधा करनेवाले भूमाफिया खत्म हो जायेंगे। सर्वोच्च न्यायालय ने निर्दिष्ट किया था कि सार्वजनिक स्थलों पर धर्मसंबंधी निर्माण कार्य की अनुमति नहीं होगी। भारत के कई शहरों में फुटपाथ और चौरस्तों पर फोड़े फुंसी की भांति ये कथित आस्था स्थल उभर आए हैं। उससे ईश्वर पर आस्था रखनेवाले और शुचिता एवं पाकीजगी पसंद करने वाले हर धर्मनिष्ठ नागरिक को मार्मिक पीड़ा होती है। मजहब के नाम पर भावनात्मक जोरजबरदस्ती से सरकारी जमीन पर गैरकानूनी कब्जा करने वाले भूमाफिया लोग जनास्था का व्यापारीकरण करते है। भारत का प्रत्येक पैदल चलता व्यक्ति इस तथ्य का गवाह है।

दो दशक पूर्व उत्तर प्रदेश विधान सभा में भाजपाई- समर्थित सरकार ने ‘सार्वजनिक धार्मिक भवनों और स्थलों का विनियमन विधेयक, 2000’ पारित किया। इसके उद्देश्य और कारण थे कि किसी भवन या स्थल का सार्वजनिक धार्मिक उपयोग और उस पर निर्माण कार्य को लोक-व्यवस्था में विनियमित किया जाय। यह कानून एक आवश्यक और अनूठा कदम था, मगर विपक्षी दलों ने वोट की लालसा से इस महत्वपूर्ण विधेयक का विरोध किया। उसे सतही तौर पर लिया। उसके सर्वांगीण पक्षों पर गौर करना चाहिए था।

इस्लामी जमात को अब जागरूक होना चाहिए ऐसे मजहबी सौदागरों से जो फुटपाथ पर मजार के नाम पर कब्जा करते ​हैं। ऐशबाग की पाक कब्रगाह की जमीन पर काबिज होकर दुकाने खोलेंगे। मुनाफा कमाएंगे। उस रकम को बैंक में जमाकर उसके सूद से तिजारत बढ़ाएंगे। कुराने पाक में कहा गया है कि रिबा (व्याज) हराम है, फिर भी इन मुसलमानों को खौफ नहीं होता। उनके समानान्तर उदाहरण मिलता है हरिद्वार से जहां विश्व हिन्दू परिषद के नेता ने नगर पालिका अध्यक्ष होने पर एक होटल को गंगातटीय तीर्थ स्थली में मांस परोसने का लाइसेंस दे डाला था।

इसीलिए उत्तर प्रदेश विधानसभा वाले उस पुराने विधेयक को ही सुधारकर अपनायें। इसमें यह भी नवीन प्रावधान होना चाहिए था कि सार्वजनिक स्थल पर कोई धर्म के नाम पर ध्वनि प्रदूषण फैलाये तो वह दण्डनीय अपराध होगा।

के विक्रम राव (वरिष्ठ पत्रकार)
(यह लेखक के निजी विचार हैं)

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