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जेएनयू के स्थापना दिवस पर विशेष- बहुत रोचक है इस विश्वविद्यालय के स्थापना की कहानी

सदियों की दासता के बाद आज़ाद हुए मुल्क़ के प्रधानमंत्री के रूप में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने महसूस किया कि धार्मिक, भाषायी और क्षेत्रीय विविधताओं से भरे इस देश को अखण्ड और एकजुट रखने के लिए धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी और विश्वदृष्टि वाले विचारों को बढ़ावा देना होगा। वे जानते थे कि इन विचारों को सिर्फ़ चुनावी मंचों से लॉन्च नहीं किया जा सकता जैसा कि आजकल के नेता सिर्फ़ ट्वीट करके धर्मनिरपेक्षता की रक्षा करते हैं।

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इसके लिए ज़रूरी था कि संस्थाएँ बनें और वे इन विचारों का वहन करें| इन मायनों में नेहरू ने आईआईटी, आईआईएम, एम्स और भाभा नाभिकीय शोध केन्द्र जैसी संस्थाओं का निर्माण किया। वे चाहते थे कि करदाताओं के पैसों से पूरी तरह राज्य पोषित एक ऐसा विश्वविद्यालय बने जो अंतरराष्ट्रीय अध्ययन और विदेशी भाषाओं की पढ़ाई के लिए समर्पित हो। उन्होंने ‘इंडियन नेशनल यूनिवर्सिटी INU’ का विचार किया| वे राष्ट्रीयता की सीमाओं से आगे जाकर देश में अंतरराष्ट्रीय सोच वाली एक युवा पीढ़ी पैदा करना चाहते थे।

Ankit Dubey

मगर पैसों की कमी के कारण ऐसा नहीं कर सके। भारत ग़रीब देश था और कर के पैसे इतने नहीं थे कि एक नए विश्वविद्यालय का ख़र्च उठाया जा सके| इसी बीच 1964 में नेहरू की मौत हो गई और लाल बहादुर शास्त्री नए प्रधानमंत्री बने। उन्होंने अपने पूर्ववर्ती के सपने को ध्यान में रखते हुए यूनिवर्सिटी की स्थापना के लिए प्रयास करना शुरू कर दिया। राज्यसभा में इस आशय का विधेयक लाया गया। अब यह बिल दिवंगत नेहरू को श्रद्धांजलि स्वरूप ‘जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी बिल’ हुआ।

बिल राज्यसभा में था। लोकसभा में जाने से पहले ही शास्त्री की भी मौत हो गई। अब उनकी उत्तराधिकारी और पण्डित नेहरू की बेटी इंदिरा गाँधी देश की प्रधानमंत्री बनीं और उन्होंने पिता के सपनों वाले विश्वविद्यालय का लंबित विधेयक लोकसभा से पारित करवा लिया। किन्तु 1966 से 1969 तक प्रधानमंत्री के रूप में ख़ुद ठिठकी और असहज रहीं और ‘गूंगी गुड़िया’ होने का आरोप झेलने वाली इंदिरा ने इस ओर ख़ास ध्यान नहीं दिया।

1969 में उन्होंने पिता की राष्ट्रनिर्माण वाली सोच में सबको साथ लेकर चलने वाली छवि से किनारा किया और ख़ुद को खुल कर समाजवादी और प्रगतिशील छवि में ढाल लिया। उन्होंने पिता की पीढ़ी के नेताओं से युद्ध किया और सबको परास्त करके अपने इर्द-गिर्द ऐसे लोगों का समूह इकट्ठा किया जो समाजवादी तरीके से उनके देश चलाने के फ़ैसले में उनके साथ रहें। यह भारतीय राजनीति का दूसरा चरण था जब वह आम सहमति से ‘हम’ और ‘वे’ वाले लोकतंत्रीय विभाजन की ओर बढ़ रही थी। ऐसे में इंदिरा गाँधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया, सम्पति के अधिकार को मूल अधिकारों की सूची से हटवा कर भूमि सुधारों के क़ानून लागू करवाए, राजाओं द्वारा राज छोड़ने के एवज में हर्ज़ाने के रूप में एक ग़रीब देश के खज़ाने से दी जा रही भारी-भरकम राशि वाले पेंशन को बन्द कर दिया।

मगर इन सभी क्रांतिकारी फ़ैसलों से पहले इनके श्रीगणेश के रूप में 1969 के राष्ट्रपति चुनाव में उन्होंने कांग्रेस सिंडिकेट के नीलम संजीव रेड्डी के आगे मजदूर नेता और श्रम मंत्री रहे वाराह वेंकट गिरी का खुला समर्थन किया और उन्हें जिताने में सफ़ल रहीं| उसी साल उन्होंने बिल से एक्ट के रूप में बदल कर रखे जेएनयू एक्ट को लागू कर दिया, तारीख़ 22 अप्रैल 1969| यह उनकी समाजवादी छवि से मेल खाने वाला निर्णय था। यह वो समय था कि जब वे समाजवाद के बरअक्स उदार अर्थव्यवस्था की बात करने वाली दक्षिणपंथी ताकतों से चुनौती पा रही थीं तो दूसरी ओर उनकी ख़ुद की पार्टी में पुराने नेताओं वाला धड़ा उनकी राह रोके हुए था| तीसरी चुनौती कम्युनिस्ट पेश कर रहे थे जो नई-नई बनी भारत की राजव्यवस्था में ख़ुद को फिट नहीं कर पा रहे थे और खेत से पार्लियामेंट तक मुश्क़िलें खड़ी कर रहे थे।

आलोचक कहते हैं कि जेएनयू को बनाने में इंदिरा गाँधी द्वारा तुरन्त ध्यान दिए जाने का एक और कारण यह भी था कि वे कम्युनिस्टों को सोने के एक ऐसे पिंजरे में बन्द कर देना चाहती थीं जहाँ से निकलना उनके लिए मुश्किल हो जाए। यह कोई ग़लत बात भी नहीं है कि जनम कर खड़ा हुआ जेएनयू जैसे-जैसे जवान हुआ कम्युनिस्ट राजनीति वैसे-वैसे बुढ़ाती चली गई| वामपंथ के बौद्धिकों को विश्वविद्यालयों के आदर्श वातावरण में अपने स्वप्नलोक को जीने की ऐसी आदत लगी कि वे ज़मीन पर उतरना छोड़ने लगे, चुनावी राजनीति में सिमटते चले गए| ख़ैर…

जेएनयू दक्षिणी दिल्ली के एक जंगल में बनाया गया और अब तक की सबसे अधिक पर्यावरण हितैषी प्रधानमंत्री की सोच के अनुसार यहाँ के प्राकृतिक वातावरण को कम से कम नुकसान पहुँचा कर और अधिक से अधिक तालमेल बैठा कर स्थापित हुआ। इसके भवन ऐसे बनाए गए कि बिना बिजली के भी लोग रह सकें| बाहर से प्लास्टर नहीं किया गया। एक तो ख़र्च बचा दूसरे कि पकी ईंटों के दिखने से यह अरावली के पहाड़ का ही एक हिस्सा मालूम हुआ।

तब से लेकर अब तक 53 साल हुए। विश्वविद्यालय ने बहुत सारे दिन देखे। इसको लेकर ज़बरदस्त आकर्षण और घृणा दोनों एक साथ रही। यही इसकी ताक़त भी है। किन्तु आजकल जातिवाद, क्षेत्रवाद और राष्ट्रीय राजनीति का लॉन्चिंग पैड बन कर जेएनयू शायद अपने सबसे बुरे दौर में है। कल तक जिन्हें हम बुरा कहते थे आज उन्हें मंच दे रहे हैं। यहीं के छात्रसंघ अध्यक्ष की हत्या के आरोपों से लदी हुई पार्टी के अध्यक्ष का पाँव यहाँ का एक वर्तमान अध्यक्ष छूता है।अपराधियों का गुणगान होता है और उन्हें जेएनयू में बोलने का मंच दिया जाता है| जो पार्टी एक राज्य और जाति विशेष की पार्टी है, जिसका छात्रों का भला करने का कोई रिकॉर्ड नहीं रहा है और जिसके सर पर यहाँ के सबसे महान छात्रसंघ अध्यक्ष की हत्या का आरोप है, वह जेएनयू में राजनीति कर पा रही है।

जिस प्रकार से गाँधी बापू के देश में उनके हत्यारे गोडसे के समर्थकों की कोई जगह नहीं होनी चाहिए उसी तरह से स्वर्गीय कॉमरेड चंद्रशेखर के कैम्पस में उनके हत्यारों की जगह नहीं हो सकती। जेएनयू से पढ़े-लिखे छात्रों को बिहार में नौकरी करते हुए प्रताड़ित करने वाली पार्टी जेएनयू में अस्वीकार है।

यहाँ पर बहस का स्तर लगातार गिर रहा है, सतहीपन बढ़ रहा है। अकादमिक कमज़ोरी सामने आ रही है। कुछ विद्यार्थियों की व्यक्तिगत मेहनत और पर्सनल एफर्ट से हासिल की गई सफलताओं को हम पूरे विश्वविद्यालय के बचाव में इस्तेमाल करें तो यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा| बावजूद इसके यह लगातार रैंकिंग में टॉप पर है| यह संतोष की बात हो सकती है, गर्व की नहीं। क्योंकि मौजूदा जो हालात हैं उसमें यह आगे इसे जारी नहीं रख सकेगा।

निःसंदेह जेएनयू पर बाहर से हमले बढ़े हैं मगर यह भी सच है कि अगर हमलों से टूट रहा है तो यह भीतर से भी खोखला है। इसे खोखला करने वाले घुन और दीमक कौन हैं इस पर चर्चा होनी चाहिए| इसकी ज़िम्मेदारी यहाँ के हर व्यक्ति की है। यहाँ के वर्तमान और पूर्व छात्र-शिक्षक के रूप में हमें अपने निजी स्वार्थ-लाभों से ऊपर उठ कर विचार करना होगा…

अंकित दुबे
(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र रहे हैं)

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