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सांस्कृतिक समाजवाद के मनीषी आचार्य जी-अरविंद जयतिलक

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अरविंद जयतिलक

भारत राष्ट्र का सौभाग्य है कि उसके नागरिक स्वतंत्र है और देश स्वयं अपने भाग्य का विधाता है। लेकिन यह स्थिति हमें अचानक प्राप्त नहीं हुई। इसके लिए अनेक महापुरुषों को दीर्घकाल तक आजादी की अलख जगाकर अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी। सन् 1857 की क्रांति से लेकर 15 अगस्त, 1947 को स्वराज्य की उपलब्धि तक का इतिहास त्याग और बलिदान का रहा है। भारतीय समाज और राष्ट्र के जीवन में नवीन प्राणों का संचार करने के लिए क्रांतिवीरों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग किया। इन विभुतियों ने देश की आत्मा को चैतन्यता से भर दिया और ऐसी लोकशक्ति का उदय किया कि देश के कोटि-कोटि नर-नारियों ने अपने प्राणों की बाजी लगा कर बरतानिया सत्ता को भारतीय भूमि से उखाड़ फेंका। इन्हीं महान व्यक्तित्वों में शुमार विलक्षण प्रतिभा के धनी स्वामी आचार्य नरेंद्र देव जी भी थे, जिन्होंने अपनी अटूट देशभक्ति से देश व समाज की सेवा की। आचार्य जी एक महान देशभक्त के अलावा उच्च कोटि के निष्ठावान शिक्षक के साथ-साथ समाज के अंतिम पांत के अंतिम व्यक्ति की आवाज भी थे। 1899 में जब आचार्य जी 10 वर्ष के थे अपने पिता के साथ लखनऊ के कांग्रेस अधिवेशन में आए और लोकमान्य तिलक, रमेशचंद्र दत्त तथा जस्टिस रानाडे के विचारों से बहुत प्रभावित हुए। वे कम उम्र में ही गरम दल के प्रमुख समाचार पत्र विशेष रुप से ‘वंदेमात्रम’ और ‘आर्य’ पढ़ने लगे और शीध्र ही उनमें राष्ट्रवाद की भावना कुलांचे मारने लगी। वीर सावरकर की पुस्तक ‘वाॅर आॅफ इंडियन इंडिपेंडेंस’ और लाला हरदयाल की पुस्तक ‘इंडियन सोशियोलाॅजिस्ट’ से वे विशेष रुप से प्रभावित हुए। वह गरम दल का संगठन खड़ा करने के लिए इंग्लैंड जाना चाहते थे लेकिन माता की जिद् के कारण नहीं जा सके। ग्रेजुएशन के उपरांत वे सोचने को विवश हुए कि अब क्या करें? फिर उन्होंने मन ही मन राष्ट्रसेवा का व्रत ठान लिया। चूंकि उनकी कर्मभूमि फैजाबाद थी लिहाजा वे यहां अपनी सक्रियता बढ़ाते हुए वकालत के साथ-साथ राजनीतिक क्रियाकलापों में भाग लेने लगे। असहयोग आंदोलन शुरु होने के साथ ही पंडित नेहरु और शिवप्रसाद गुप्त के आमंत्रण पर काशी विद्यापीठ आ गए। उन्होंने डा0 भगवान दास जी की अध्यक्षता में काम करना शुरु किया और 1926 में अध्यक्ष बने। विद्यापीठ के अध्यापकों और विद्यार्थियों से आचार्य जी का बड़ा लगाव रहा और यहां के विद्यार्थियों ने स्वतंत्रता संग्राम और स्वतंत्र राष्ट्रीय शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। प्रयाग में रहते हुए उनके विचार और भी अधिक पुष्ट हुए। उन दिनों हिंदू बोर्डिंग हाउस उग्र विचारों का केंद्र था और वे वहां गरम दल के विचारों के हो गए। सच कहें तो आचार्य ने 1906 में जो उग्र विचारधारा अपनायी, जीवन के अंत तक उस पर दृढ़ रहे। 1916 में जब कांग्रेस के दोनों धड़ों में मेल हुआ तो वे कांग्रेस में आ गए। आचार्य जी 1916 से लेकर 1948 आल इंडिया कांग्रेस कमेटी के सदस्य और जवाहर लाल नेहरु की वर्किंग कमेटी के सदस्य थे। खराब स्वास्थ्य के बावजूद भी आचार्य ने 1930 के नमक सत्याग्रह, 1932 के सविनय अवज्ञा आंदोलन और 1941 के व्यक्तिगत सत्याग्रह में साहस से भाग लिया। यही नहीं 8 अगस्त, 1942 को जब गांधी जी ने अंग्रेजों भारत का नारा दिया तो वे मुंबई में कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों के साथ गिरफ्तार हो गए। वे 1942-45 तक पंडित नेहरु के साथ अहमद नगर के किले में बंद रहे। आचार्य कभी भी क्रांतिकारी दल के सदस्य नहीं रहे। लेकिन उनका उग्र विचारधारा से जुड़े क्रांतिकारियों से घनिष्ठ संबंध था। वे समय-समय पर उनकी सहायता भी करते थे। आचार्य जी समाज के कमजोर वर्ग के आर्थिक व सामाजिक जीवन में व्यापक परिवर्तन के भी हिमायती थे। उन्होंने अपने संघर्ष की उर्जा को समतामूलक समाज के निर्माण, राष्ट्रीय एकता, अखण्डता और समानता की दिशा में प्रवाहित किया। उनका दृष्टिकोण स्पष्ट था कि जब तक देश के कमजोर वर्ग विशेषकर किसान व मजदूर आर्थिक रुप से सबल नहीं होंगे तब तक देश का उत्थान संभव नहीं है। 22 नवंबर, 1936 को बरेली के प्रादेशिक राजनीतिक सम्मेलन में उन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा भी कि‘ किसानों और मजदूरों का एक स्वतंत्र संगठन बनाना आवश्यक है।’ उन्होंने 4 अप्रैल, 1939 को गया में अखिल भारतीय किसान सभा के अधिवेशन में भी किसानों के सवाल को प्रमुखता से उठाया और कहा कि किसानों की वर्ग चेतना पूरी तरह स्वतंत्र नहीं है और अब उन्हें संगठित कर उनके मांगों के समर्थन के लिए ब्रिटिश सरकार पर दबाव बनाना चाहिए। उन्होंने 13 जून, 1935 को भी गुजरात प्रदेश कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के सम्मेलन में मजदूरों और किसानों को संगठित करने पर बल दिया। आचार्य नरेंद्र देव श्रमिकों की भांति किसानों को भी वर्ग संघर्ष और परिवर्तन का उपकरण मानते थे। जब 1930 में उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने किसानों की दुर्दशा एवं उनके शोषण का अध्ययन करने के लिए एक कमेटी का गठन किया गया तो आचार्य नरेंद्र देव और डा0 संपूर्णानंद को उसका सदस्य बनाया गया। आर्चाय ने अपनी महती भूमिका का निर्वहन करते हुए जमींदारी उन्मूलन के लिए किसानों में चेतना उत्पन की और समाजवादी समाज की स्थापना के लिए संघर्ष का एलान किया। समाजवाद के संदर्भ में आचार्य के विचार बड़े स्पष्ट थे। वे समाजवाद को राजनीतिक से ज्यादा सांस्कृतिक आंदोलन मानते थे। उनका कहना था कि बिना राजनीतिक संस्कृति के राजनीतिक कार्यकर्ताओं में न अनुशासन आ सकता है, न वे सिद्धांतनिष्ठ बन सकते हैं और न ही उनकी दृष्टि में व्यापकता आ सकती है। समाजवाद के पितामह आचार्य नरेंद्र देव ने 1934 में जयप्रकाश नारायण, डा0 राममनोहर लोहिया एवं अन्य सहयोगियों के साथ मिलकर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। कांग्रेस से बाहर आने पर 1948 में सोशलिस्ट पार्टी का जो सम्मेलन पटना में हुआ उसकी अध्यक्षता की। सच कहें तो समाजवादी आंदोलन में आचार्य नरेंद्र देव का वही स्थान है जो परिवार में पिता का या शरीर में आत्मा का होता है। आचार्य माक्र्सवादी समाजवदी थे, किंतु वे समाजवाद की प्रांसगिकता को राष्ट्रीय परिस्थितियों और आकांक्षाओं के संदर्भ में देखते थे। बौद्ध दर्शन के अध्ययन में आचार्य की विशेष रुचि थी। आजीवन वे बौद्ध दर्शन का अध्ययन करते रहे। अपने जीवन के अंतिम दिनों में उन्होंने ‘बौद्ध-धर्म-दर्शन’ पूरा किया। उन्होंने अभिधर्मकोष प्रकाशित कराया और अभिधम्मत्थसंहहो का हिंदी अनुवाद किया। आचार्य ने ‘विद्यापीठ’ त्रैमासिक पत्रिका, ‘समाज’ त्रैमासिक, ‘जनवाणी’ मासिक, के अलावा ‘संघर्ष और ‘समाज’ साप्ताहिक पत्रों का संपादन किया। सच कहें तो आचार्य जी एक ऐसे राजनीतिक विचारक, लेखक, चिंतक, शिक्षाशास्त्री व पत्रकार थे जिनके चिंतन, मनन और आचरण-व्यवहार में समाज व राष्ट्र के प्रति स्पष्ट मूल्यबोध और प्रतिबद्धता झलकती थी। राजनीतिक चेतना और विद्वता का उनमें अद्भुत सामंजस्य था। वे संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, फारसी, बांग्ला, पाली, फ्रेंच और प्राकृत भाषाएं अच्छी तरह जानते थे। उन्होंने ‘मेरे संस्मरण’ शीर्षक रेडियो वार्ता में कहा है कि ‘मेरे जीवन में सदा दो प्रवृत्तियां रही हैं-एक पढ़ने-लिखने की और दूसरा राजनीति की, इन दोनों में संघर्ष रहता है। यदि दोनों की सुविधा एक साथ मिल जाए तो बड़ा परितोष रहता है और यह सुविधा मुझे विद्यापीठ में मिली। इसी कारण वह मेरे जीवन का सबसे अच्छा हिस्सा है जो विद्यापीठ की सेवा में व्ययतीत हुआ।’ शिक्षा और भारतीय संस्कृति के क्षेत्र में आचार्य जी ने जो मानदंड गढ़े हैं वह भारत के लिए अमूल्य देन है। उन्होंने अपने साहित्य के द्वारा भारतीय संस्कृति के संदेश को दुनिया भर में प्रसारित किया। भारत में समाजवाद को राष्ट्रीयता और किसानों के सवाल से जोड़ना आचार्य नरेंद्र देव की भारतीय समाजवाद को एक महान देन है। स्वधर्म व देश के लिए आचार्य जी ने देशवासियों में जो प्रेम व स्वाभिमान उत्पन किया और सेवा के लिए जो भावना पैदा की उसका इतिहास में अविस्मरणीय स्थान है। देश के मौजूदा सियासतदानों को भी आचार्य नरेंद्र देव के राष्ट्रवादी विचारों से सबक लेते हुए राष्ट्र की सेवा के लिए तत्पर होना चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं )

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