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हम चाकर रघुवीर के-हेमंत शर्मा

 

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तुलसी भारतीय पुनर्जागरण के पुरोधा थे।उन्होंने मानस के जरिए बिखरे भारतीय समाज को पुर्नगठित किया। तुलसी सत्ता की बुराइयों और बुराई की सत्ता के प्रति मुखर हैं।वे जात-पात से परे हैं। तुलसी के प्रयास से ‘भासा’ संस्कृत हो गयी। भासा को प्रतिष्ठा मिली। पिछड़े, भील, बनवासी , आदिवासी उस युग में पूज्य हो गए। लोक में शास्त्र और शास्त्र में लोक को पहली बार प्रवेश मिला। तुलसी ने स्थापित किया अन्याय मिटाकर दलितों की सेवा करना धर्म है।और शोषण राक्षस कर्म है।भले वह ब्राह्मण कर रहा हो। रावण अनियंत्रित सत्ता का प्रतीक है। और राम, पिछड़े, वनवासियों के संगठन और साहस का प्रतीक। एक तरफ पाप, अधर्म, सवर्ण सत्ता। दूसरी तरफ पुण्य, धर्म, दलित, वनवासी, गिरिजन, जंगल की प्रकृति और लोकभाषा का पक्ष। इसी आधार से उपजा उनका रामराज्य क्षेत्रवाद, जातिवाद और सम्प्रदायवाद से मुक्त है।
राम ने स्वयं दुख सह कर समाज की सेवा की। विषमता रहित, समतामूलक समाज की स्थापना की। वे कभी अन्याय, शोषण के आगे सिर नहीं झुकाते। वे रावण को मार वैकल्पिक सामाजिक व्यवस्था देते हैं। राम के प्रधान सलाहकार हनुमान हैं। जंगलवासी। अर्धशिक्षित। पिछड़े। हनुमान आदिवासी हैं। जनजाति के हैं। तुलसी से पहले भारत की जंगली जातियों पर किसी का ध्यान नहीं गया। राम ने वनवासियों को संगठित किया। उनका पिछड़ापन दूर किया। उन्हें उत्तम शासन दिया। उनका राज्य नहीं हड़पा।उनका शासन शोषण मुक्त कर उन्हीं को सौंपा।जातियों के बीच तुलसी समन्वय और संतुलन बनाते हैं। वाल्मीकि के मुकाबले तुलसी के मानस में शम्बूक वध नहीं है। फिर भी वे दलित विरोधी ?
वैष्णव शास्त्रों में 64 अपराध मान उन्हें श्रेणीबद्ध किया गया है।इन श्रेणियों में भक्तों में जातिभेद रखना भी एक अपराध है। इसके बाद भी तुलसी पर ब्राह्मणवादी होने का आरोप ?
विडंबना देखिए कि तुलसी जिस त्रासदी से अपने युग में जूझ रहे थे। वही आज भी उनका पीछा नहीं छोड़ती। त्रासदी यही हैं ।कि तुलसी को उनका युग खासकर पंडित नहीं समझ सके। क्योंकि वह संस्कृत में नहीं लिख रहे थे। और उसी पांडित्य का अहंकार बोध तुलसी को उस वक्त और आज भी प्रताड़ित कर रहा है। नहीं तो अपनी कालजयी रचना ‘रामचरितमानस’ कीशुरूआत में तुलसी को यूं ही नहीं लिखना पड़ा कि-

भाषा भनिति भोरि मति मोरी।
हँसिबे जोग हँसें नहिं खोरी॥

“मेरी कविता तो भाषा में है और मैं ठहरा निपट मूर्ख तो यदि कोई मेरी कविता पर हंसता हैं। तो उसका कोई दोष नहीं है।” उस वक्त पंडितों की हंसी आज के ‘महापंडितों’ की गाली में तब्दील हो गयी है। अब भला कौन सा कवि अपनी ही रचना को हास्य योग्य बताकर अपनी बात की शुरुआत करेगा। लेकिन तुलसी तो काशी के पांडित्य से पीड़ित थे। इसलिए अपनी सर्वश्रेष्ठ रचना के शुरू में उनको यह दावा करना पड़ा-
कबित बिबेक एक नहिं मोरें।
सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें॥

दरअसल राम, तुलसी, गांधी, लोहिया और जयप्रकाश अन्याय मिटाने ही आए थे। गांधी, लोहिया का तुलसी पर कहा मैं पिछले लेखों में लिख चुका हूं। अब जयप्रकाश को सुनें, ‘तुलसी ने भारतीय संस्कृति के बिखरे और विघटित तत्वों को इकट्ठा किया। उनका समन्वय किया। भारतीय समाज की चेतना को अपनी संस्कृति के जरिए आगे बढ़ाया।’ (मानस चतुश्शती के मौके पर बीएचयू में दिया गया भाषण) तुलसी संत परम्परा के हैं। संत सत्ता और राजा का विरोधी नहीं होता। पर अनुचर भी नहीं होता। इसीलिए तुलसी ने अपनी स्थिति साफ की है।

हम चाकर रघुवीर के, पटौ लिखौ दरबार।
अब तुलसी का होहिंगे नर के मनसबदार।।

यह त्याग की ललकार है। तुलसी का रामराज्य आदर्श समाजवादी राज्य है। राम के प्रताप से विषमता खत्म होती है। सबको काम मिलता है।

खेती, बनि, विद्या, बनिज, सेवा सिलिप सुकाज।
तुलसी सुरतरु सरिस सब, सुफल राम के राज॥

तो फिर तुलसी को ब्राह्मणवादी क्यों कहा जाए? अगर वे ब्राह्मणवादी होते तो ब्रह्माण्ड के प्रकाण्ड विद्वान रावण को खलनायक क्यों बनाते? रावण द्विज होकर भी राक्षस है। दुष्ट, महापापी, अधम है। वह वध के योग्य है। ऐसा चित्रण वे क्यों करते? आप कह सकते हैं कि वे रामकथा लिख रहे थे। सो रावण तो कथा का खलनायक था ही फिर तुलसी उससे बचते कैसे।पर दूसरी रामायणों की तरह तुलसी के पास भी कथा में बदलाव के विकल्प थे ‘कम्बन रामायण’ में रावण की प्रतिष्ठा है। ‘कृतिवास रामायण’ में भी बदलाव है। ‘पेरियार की रामायण’ में तो रावण भगवान के करीब है। बौद्ध साहित्य के ‘दशरथ जातक’ में पूरी रामकथा उलट-पलट गयी है। राम सीता को भाई-बहन कहा गया है। तुलसी अगर ‘ब्राह्मणवादी’ होते तो रावण की तरफदारी के लिए अपने यहॉं भी कुछ बदलाव कर सकते थे। ब्राह्मण स्वाभिमान के प्रतीक परशुराम को वे हंसी, उपहास का पात्र न बनाते। विभीषण को वे घर का भेदी, गद्दार और चुगलखोर के तौर पर चित्रित न करते। मानस में तुलसी के साहित्य में ब्राह्मण ही नहीं वानर, भालू भी चरित्रवान हैं। वनवासी, आदिवासी श्रेष्ठ हैं। अयोध्या से निकलते ही राम की पहली मुलाकात निषाद से होती है। पिछड़ों से होती है। निषाद उनका स्वागत करते हैं। वन में राम की भेंट आदिवासियों और वनवासियों से होती है। भील जाति की शबरी उनके लिए पूजनीय हैं। अनुसुईया पूज्य हैं। शूर्पणखा ब्राह्मण है। राम ने उसकी क्या गति की? ब्राह्मणवाद का आरोप उन पर चिपकता नहीं। मनुष्य तो मनुष्य, उनके यहां वानर भी पूज्य हैं। मानस में कभी-कभी तो लगता है। उनके यहॉं पिछड़े, अगड़े से ज्यादा साहसी और समर्थ हैं। सीता का पता हनुमान लगाते हैं। समुद्र वे लांघते हैं। लंका वे जलाते हैं। ध्यान रहे हनुमान वनवासी हैं। उन्होंने जंगल में पिछड़ी जातियों का मेल बढ़ाया।
तुलसी को उनके जीवन काल में ब्राह्मणों ने ही प्रताड़ित किया। वे ब्राह्मण ही तो थे जो तुलसीदास की कविता का मजाक उड़ा रहे थे। ठहाका लगा रहे थे।उनका लिखा गंगा में फेंक रहे थे।पंडितों ने तुलसी को ‘पंचिंग बैग’ बना दिया था। उनकी नाम में दम कर रखा था। महाकाव्य की शुरुआत में आपको मंगलाचरण तो दुनिया में हर महाकाव्य मे मिलेगा। लेकिन रामचरितमानस दुनिया का पहला और अनोखा ग्रंथ होगा जिसमें ग्रंथ की शुरुआत ही ‘खल वंदना’ की गई है। वे गौरी, गणेश, शिव के मंगलाचरण के बाद दुष्टों की वंदना करते हैं। ये खल कौन थे? ब्राह्मण ही थे। जो तुलसी के आसपास का समाज था। वे ही उनका काम लगा रहे थे। उनकी यह दुष्ट वंदना अपने युग के अभिजात्य का व्यंगात्मक स्मरण है। जो उन्हें सताते थे। उसमें अधिकांश ब्राह्मण और पंडित ही थे। शायद इसीलिए मानस की रचना के केंद्र में ब्राह्मण की श्रेष्ठता नहीं बल्कि भक्ति की प्रधानता है। तुलसी पुरोहितों के भी खिलाफ हैं। उसका मूल्यवान संदर्भ रामचरितमानस के उत्तरकांड में है। सबकुछ हो जाने के बाद राम अमराई में पहुंचते हैं। भाईयों के साथ संवाद करते हैं। वहां गुरु वशिष्ठ भी मौजूद हैं।इस प्रसंग में महर्षि वशिष्ठ का कहा ही तुलसीदास की ‘ब्राह्मणदृष्टि’ है। उत्तर काण्ड में अपने युग का सबसे बड़ा ऋषि कहता है। “उपरोहित्य कर्म अति मंदा। बेद पुरान सुमृति कर निंदा॥” मैं राम का पुरोहित हूं। यह काम बहुत नीच है। वेद, पुराण और स्मृति सबने इसकी निंदा की है। वशिष्ठ पौरोहित्य कर्म छोड़ना चाहते हैं। वे सिर्फ राम के कारण इस कर्म को करते हैं। ऐसा तुलसी को क्यों लिखना पड़ा? सिर्फ ब्राह्मणों की प्रताड़ना के कारण ही न ?

बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें॥

यानी अब मैं सच्चे भाव से दुष्टों को प्रणाम करता हूँ, जो बिना ही प्रयोजन, अपना हित करने वाले के भी प्रतिकूल आचरण करते हैं। दूसरों के हित की हानि ही जिनकी दृष्टि में लाभ है, जिनको दूसरों के उजड़ने में हर्ष और बसने में विषाद होता है।
तुलसी गम्भीर सॉंसत से गुजर रहे थे।वे अपने आस पास के ऐसे खलों ( दुष्टो ) को भली-भांति पहचान रहे थे-
हरि हर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से॥
जे पर दोष लखहिं सहसाखी। पर हित घृत जिन्ह के मन माखी॥
जो हरि और हर के यश रूपी पूर्णिमा के चन्द्रमा के लिए राहु के समान हैं (अर्थात् जहां कहीं भगवान विष्णु या शंकर के यश का वर्णन होता है, उसी में वे बाधा देते हैं) और दूसरों की बुराई करने में सहत्रबाहु के समान वीर हैं। जो दूसरों के दोषों को हजारों आँखों से देखते हैं और दूसरों के हित रूपी घी के लिए जिनका मन मक्खी के समान है ( जिस प्रकार मक्खी घी में गिरकर उसे खराब कर देती है और स्वयं भी मर जाती है, उसी प्रकार दुष्ट लोग दूसरों के बने-बनाए काम को अपनी हानि करके भी बिगाड़ देते हैं)।यह तुलसी की अपने समाज को लेकर पीड़ा थी। वे पलायनवादीनहीं थे। उससे जूझ रहे थे।
बचन बज्र जेहि सदा पिआरा। सहस नयन पर दोष निहारा॥
जिनको सदैव कठोर शब्द वज्र के समान प्यारे लगते हैं और जिनको हजारों आँख से दूसरों के दोष ही दिखलाई देते हैं। संस्कृतनिष्ठ पंडितों के प्रति यह उनका आक्रोश है।

उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति॥

दुष्ट लोगों की यही स्वभाव होता है जो मित्रों और शत्रुओं के प्रति उदासीन होते हैं और उनकी प्रशंसा सुनकर जलते हैं। यह जानकर भी अनेक लोग उनसे दोनों हाथ जोड़कर प्रेम-पूर्वक प्रार्थना करते हैं।
मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥
बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा॥
मैं अपनी ओर से उनसे कितनी भी प्रार्थना करूँ लेकिन वह अपने लाभ के लिये भी कभी नहीं सुधरेंगे। जिस प्रकार कौओं को कितने भी प्रेम से पालने पर भी वह मांस को खाना कभी नहीं छोड़ते हैं।
इन पंक्तियों में कहीं दलित , पिछड़ा या नारी नहीं है।ये सब खल ,तुलसी की बिरादरी के हैं। जो उनके स्वान्त सुखाय में बाधा है। तुलसी इस खल जनों को कौआ कहते हैं क्योंकि उन्हें पता था कि उनकी रचना को आलोचना ही मिलेगी।इसलिए इस समर्थ कवि को दुष्टों की वंदना करनी पड़ी। तुलसी के युग को समझते,पढ़ते हुए संभवत: उसके कुछ सूत्र मिलते हैं। रामचरितमानस में खल मंगलाचरण के जरिए तुलसी अपने युग के उस आभिजात्य का व्यंग्यात्मक स्मरण करते है जो उन्हें सदैव सताता रहा था। इनमें ब्राह्मण और पंडित ही तो थे। और कौन रहा होगा?
मानस यानी लोकमानस रामचरितमानस ‘लोकमानस’ है। जो लोक में है वही लिखा है। राम का मानस भी लोकमानस हो गया। इसलिए तुलसी के विराट साहित्य में जातियों और उनकी धारणाओं को उस लोकमानस के कथा संदर्भ से बाहर करने पर अर्थ का अनर्थ हो जाता है। लेकिन अगर हम मानस मे गहरे पैठे तो हमें धारणाओं के विपरीत तुलसी ब्राह्मणों से टकराते, ललकारते दिखते हैं। रामविलास शर्मा ने भी लिखा है, “लोग नाहक ही तुलसी को शुद्रों पर ब्राह्मणों के प्रभुत्व का समर्थक बताते हैं।” पंडिताई के आतंक और उपेक्षा को तुलसी से ज्यादा किसने महसूस किया था। कवितावली में तुलसी का निडर स्वर मुखर हुआ है। वे वहां ब्राह्मणों को चुनौती देते हैं, “कौन धौं सोमयागी, अजामिल, अधम, कौन गजराज धौं बाजपेयी।” जाति कहां ठहरती है जब कृपा और भक्ति उतरती है। जाति की मंत्रणा को लेकर तुलसी करूण हो जाते हैं, “लोग कहे पोचु सो न सोचु न संकोच, मेरे ब्याह न बरेखी जाति-पांति न चहत हौं।”
यह मात्र संयोग नहीं है कि पिछड़ी जाति की शबरी राम की सहायता करती है। उसमें किसी प्रकार की हीनता नहीं है। राम को जूठे बेर खिलाए। शबरी ने राम को पम्पासर जाने को कहा।उन्हें उनके मक़सद की रणनीति बताई। कहा वहां सुग्रीव से मित्रता होगी। यह राम के प्रति वनवासी आदिवासियों की गोलबंदी थी। शबरी उसका केन्द्र थी।
जाति हीन अघ जन्म महि मुक्त कीन्हि असि नारि।
महामंद मन सुख चहसि ऐसे प्रभुहि बिसारि॥
और अंत में घोषणा तुलसी की-

बिप्र द्रोह जनु बाँट परयो, हठि सबसों बैर बढ़ावौं।
ताहू पर निज मति-बिलास सब संत माँझ गनावौं॥

ब्राह्मण उन्हें विप्र विरोधी कहें तो स्वाभाविक है। पर आजकल तुलसी को समग्रता में बिना पढ़े उन्हें कुछ स्वघोषित चिंतक ‘ब्राह्मणवादी’ करार दे रहे हैं।
वास्तविकता यह है कि तुलसीदास को अपने जीवन में सर्वाधिक विरोध पंडितों का ही सहना पड़ा है और पंडित भी सामान्य नहीं बल्कि काशी के दिग्गज पंडितों ने तुलसीदास के जीवन पर अनेक प्रश्न उठाए-
बरन धर्म नहिं आश्रम चारी। श्रुति बिरोध रत सब नर नारी।
द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन। कोउ नहिं मान निगम अनुसासन॥
कलियुग में न वर्णधर्म रहता है, न चारों आश्रम रहते हैं। सब पुरुष-स्त्री वेद के विरोध में लगे रहते हैं। ब्राह्मण वेदों के बेचने वाले और राजा प्रजा को खा डालने वाले होते हैं। वेद की आज्ञा कोई नहीं मानता॥
बनारस के शिवमंदिरों के पुजारियों की तरफ से उनका बहुत विरोध हुआ था। गोस्वामी जी कवितावली में अपनी सच्चाई का प्रतिपादन करते हुए शिव से प्रार्थना करते समय इसी विरोध का उल्लेख कर रहे हैं –

देव सरि सेवों बाम देव गॉव राव रेई
रामू नाम ही है मांग उदर भरत हों।
दीवे जोग तुलसी न लेत काहू को कछु।
लिखी न भलाई भल पोच न करत हौं ।
राते पर हूं जो काऊ रावरे है जोर करै
ताको जोर देवे दीन द्वारे गुदरत हों
पाई के उराहनो डराहनों न मोहिं ।
काल कला कासी नाथ कहे निवरत हों।।

साहित्य मानव के स्थूल और बाह्य संघर्षों के साथ ही उसके मनोभावों और मानसिक निर्णयों का प्रलेख होता है।तुलसी उसे ही अंकित कर रहे थे।
तुलसीदास ऊंची जातियों पर ये कटाक्ष करने से भी नहीं चूकते-

अति ऊँचे भूधरनि पर भुजगन के अस्थान।
तुलसी अति नीचे सुखद ऊख अन्न अरु पान॥

तुलसीदासजी कहते हैं कि बहुत ऊँचे पहाड़ों पर (विषधर) सर्पों के रहने के स्थान होते हैं और बहुत नीची जगह में अत्यन्त सुखदायक ऊख, अन्न और जल होता है।अब क्या चाहते हो भाई।अब भीउन्हें ब्राह्मणवादी समझते है। तो आपको इलाज की ज़रूरत है। तुलसी को नहीं। उनका काव्य जड़ चेतन में राम को पहचानने की प्रक्रिया है। राम की पहचान और रावण वध प्रतिपक्ष की भूमिका है। यही तुलसी का प्रतिपक्ष है।
जय जय।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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