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2003 की तरह बनती विपक्षी एकता ; शकील अख्तर

आपकी सफलता की बड़ी पहचान क्या होती है? यह कि आपका कदम विपक्षी खेमे में हचलच मचा दे। वे उसका विरोध करने लगें, मजाक उड़ाने लगें और मीडिया को आपके पीछे लगा दें!
यही हुआ। दिल्ली में नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव के कांग्रेस अध्यक्ष खरगे और राहुल गांधी से मिलने ने भाजपा के खेमे में हचचल मचा दी। बुधवार, 12 अप्रैल 2023 की यह पहल मील का पत्थर बन गई। खरगे ने और फिर राहुल गांधी ने इसे ऐसे ही ऐतिहासिक नहीं कहा है। 2004 के पहले सोनिया गांधी ने भी ऐसी ही विपक्षी एकता बनाई थी। और उसके बाद क्या हुआ यह सबको मालूम है।

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आज शायद लोग न समझें मगर उस समय के लोगों को याद है कि उस दौरान वाजपेयी कितने मजबूत थे और दूसरे सोनिया के साथ विदेशी मूल इस तरह चिपका दिया गया था कि बाकी लोगों की छोड़िए कांग्रेसियों तक को लगता था कि सोनिया सफल नहीं हो सकतीं। सोनिया भी जानती थीं कि अकेले वाजपेयी सरकार से लड़ना संभव नहीं है। उन्होंने 2003 में लोकसभा चुनाव से एक साल पहले शिमला में चिंतन शिविर बुलाया। और उसमें विपक्षी एकता का रोडमेप तैयार किया। याद रहे कि उस समय भी कांग्रेस में कुछ ऐसे लोग थे जो विपक्षी एकता के पक्ष में नहीं थे। प्रणव मुखर्जी जो इस विपक्षी एकता से बनी यूपीए सरकार के बड़े बेनीफिशरी ( लाभ उठाने वाले) रहे, राष्ट्रपति बने वे विपक्षी एकता के भारी खिलाफ थे। बाद में उन्होंने अपनी कई खंडों में लिखी किताब में माना है कि उस समय सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह की विपक्षी एकता की पहल का उन्होंने विरोध किया था।

 

लेकिन जैसे आज कांग्रेस ने इसका महत्व समझा है वैसे ही 2004 से पहले सोनिया समझ चुकी थीं। उस समय सीपीएम के नेता हरकिशन सिंह सुरजीत का उन्हें बहुत समर्थन मिला था। वीपी सिंह भी राजीव गांधी पर लगाए झूठे आरोपों की अपनी गलती मान चुके थे। और पश्चाताप में सोनिया का समर्थन कर रहे थे। रामविलास पासवान जिन्हें मौसम विशेषज्ञ कहा जाता है। उस समय भी भविष्य का मौसम पहचान चुके थे। और गुजरात दंगे के खिलाफ वाजपेयी सरकार छोड़ दी थी। सोनिया ने उनकी पार्टी लोक जनशक्ति, शरदपवार की एनसीपी, करुणानिधि (आज स्टालिन की) की डीएमके, जेएमएम, राष्ट्रीय लोकदल आदि को लेकर एनडीए के मुकाबले यूपीए का गठन किया था। सुरजीत उस समय यूपी में मुश्किल में फंसे मुलायम सिंह के सबसे बड़े मददगारों में थे। उनकी सरकार बनवाई थी। इसलिए मुलायम को भी सुरजीत के दबाव में सोनिया के प्रति उदार रुख दिखाना पड़ रहा था।

 

इतिहास कैसे अपने आप को दोहराता है यह आज 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले साफ दिख रहा है। जैसे 2003 में विपक्षी एकता की शुरूआत हुई थी वैसी ही अब 2023 में दिख रही है। तब भी भाजपा की सरकार थी और आज भी है। तब भी लोकसभा चुनाव के एक साल पहले विपक्षी एकता की तस्वीर बनी थी और अभी भी ठीक एक साल पहले यह शुरूआत हो गई है।

मगर साम्यताओं के साथ कुछ फर्क भी हैं। आज मीडिया पूरी तरह मोदी के साथ है। तब इतना नहीं था। प्रधानमंत्री वाजपेयी के सबसे विश्वस्त मंत्री प्रमोद महाजन ने मीडिया को काफी हद तक अपने पक्ष में कर रखा था। मगर ऐसा डर नहीं था कि जो वाजपेयी के साथ नहीं जाएगा उसका नुकसान हो जाएगा। इलेक्ट्रोनिक मीडिया भी नया था और पूरी तरह दक्षिणपंथी रंग मंथ नहीं रंगा था। प्रिंट में पत्रकरिता के ओल्ड स्कूल के लोग बचे हुए थे जो सरकार की आलोचना करना अपना पत्रकारिय दायित्व मानते थे। हालांकि उप प्रधानमंत्री आडवानी ने मीडिया में बड़ी तादाद में अपने लोगों को भर्ती करवा दिया था। और वे मीडिया को दक्षिणपंथ के साथ साम्प्रदायिक रंग में रंगने में लगे हुए थे। आडवानी ने इसकी शुरूआत 1977 में कर दी थी। तब वे केन्द्रीय सूचना प्रसारण मंत्री थे। भारतीय मीडिया के लिए जिसे उस समय प्रेस कहा जाता था वह पतन की शुरूआत थी। आडवानी ने सारे अखबारों में, न्यूज ऐजेन्सियों में दूरदर्शन, रेडियो में अपने लोगों को भर्ती करवाना शुरू कर दिया था। मजेदार बात यह है कि उनमें से कई पत्रकार भी नहीं थे। उन्हें कापी लिखना भी नहीं आता था। बाद तक कई पत्रकार बहुत सीनियर भी हो गए। अब कई ऊंची जगह पर हैं। मगर ठीक से लिखना नहीं सीख पाए। इन लोगों के बहुत करीब रहे अरुण शौरी ने अभी कुछ समय पहले कहा था कि एक पैराग्राफ तो बड़ी बात है। दो वाक्य भी सही नहीं लिख सकते।

 

आडवनी ने इसे वाजपेयी सरकार आने के बाद और तेज किया। दूरदर्शन में उनके लगाए लोगों के खिलाफ इतना विरोध हुआ था कि उस समय सीपीएम और कांग्रेस ने संयुक्त प्रेस कान्फ्रेंस करके इस मामले को उठाया था। हालांकि सरकार आने के बाद न कांग्रेस ने और न सीपीएम ने जो सरकार का समर्थन कर रहा था उन आडवानी के लगाए गए लोगों के खिलाफ कोई कार्रवाई की। मजेदार यह कि कुछ तो कांग्रेस के मंत्रियों के बहुत खास हो गए। खैर यह तो कांग्रेस का करेक्टर है कि वह खुद को गालियां देने वालों को बहुत लाड़ प्यार से रखती है। रखे वह उसकी मर्जी है। मगर इससे मीडिया को रीढ़वीहिन बनाने के दक्षिणपंथी और प्रतिक्रियावादी अजेडें को हमेशा मदद मिली है। यथास्थितिवादी और प्रतिगामी पार्टी मीडिया को केवल प्रचार के टूल की तरह मानती है। जबकि लोकतंत्र को मानने वाले दल के लिए मीडिया जनता को शिक्षित करने और सत्ता को निरकुंश होने से रोकने की प्रमुख संस्था है।

 

मगर आज मीडिया क्या सारी संवैधानिक संस्थाएं ढह गई हैं। ऐसे में विपक्षी एकता का महत्व और बढ़ जाता है। मुद्दा अब संविधान और लोकतंत्र हो गया है। भाजपा और मीडिया अब बार बार यह सवाल उठा रहा है कि प्रधानमंत्री कौन बनेगा? मतलब?

 

मतलब क्या उसने मान लिया है कि एकता की शुरुआत के साथ ही प्रधानमंत्री बनने तक की मंजिल करीब आ गई है। इतनी निराशा! अभी तो शुरूआत भर हुई है। जब इस तरह की बैठकें ममता बनर्जी, शरद पवार, केसीआर, अखिलेश यादव और दूसरे नेताओं के साथ होंगी तो फिर क्या होगा? तब तो लगता है वे यह भी पूछने लगेंगे कि मंत्रिमंडल में किस फार्मूले से मंत्रालयों का बंटवारा होगा? यानि पूरी तरह विपक्षी एकता को जीत की कूंजी मान लेंगे।
अच्छा है। मगर तब जब विपक्ष की ज्यादातर पार्टियां इसे समझें। उनकी समझ में जीत का महत्व, फायदा आए या ना आए मगर हार का नुकसान, लोकतंत्र के मिटने के भीषण परिणाम आ जाएं!

 

यह समझ में आए कि न्यायपालिका, मीडिया, चुनाव आयोग, लोकसभा जहां एक दिन की देरी किए बिना राहुल की सदस्यता खत्म कर दी जाती है, केन्द्रीय जांच एजेन्सियां जो सिर्फ विपक्ष के नेताओं पर ही कार्रवाई करती है और बाकी सब भी संवैधानिक संस्थाएं, सरकारी विभाग किस तरह दबाव में काम कर रहे हैं। तभी वे विपक्षी एकता की ऐतिहासिक जरूरत को समझेंगे और 2003 की तरह एक बार अगर समझ में आ गया तो फिर किसी छापे, जेल या कार्रवाई का डर उन्हें कमजोर नहीं कर सकता। सीधा सिद्धांत है कि अलग अलग लड़ेंगे तो सब पिटेंगे।

 

एक हो गए मुट्ठी बंध गई तो वह लाख की हो गई। समझना विपक्ष को है वही पुरानी कहानी कि अलग अलग लकड़ियां कोई भी दो टुकड़े कर देता है। और गट्ठर बंध गया तो किसी के तोड़े नहीं टूटता!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, यह उनके निजी विचार हैं)

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