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गहलोत पायलट का युद्धविराम या युद्ध समाप्त: शकील अख्तर

राहुल गांधी के पेशेंस को दाद देना होगी। कर्नाटक का मामला जैसे सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार के बीच फंसा हुआ था । वैसे ही या उससे कहीं ज्यादा राजस्थान का उलझा हुआ था। दोनों जगह राहुल की विश्वसनीयता काम में आई। कर्नाटक में भी दोनों पक्षों ने माना कि, राहुल समय आने पर खुद न्याय करेंगे और ऐसा ही सोमवार रात अशोक गहलोत और सचिन पायलट ने माना। नेता का डर तो इस समय खूब देखने को मिल रहा है। मगर नेता की बात पर भरोसा अब कहीं नहीं दिखता। मगर राहुल ने वचन के मूल्य को फिर से स्थापित कर दिया। सब इस उम्मीद में थे कि राजस्थान में विवाद बढ़ेगा। खासतौर से भाजपा इसी उम्मीद में बैठी थी। इसीलिए उसने अभी तक दो बार मुख्य मंत्री रहीं और राजस्थान की सबसे बड़ी भाजपा नेता वसुन्धरा राजे को कोई जिम्मेदारी नहीं सौंपी है।

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मोदी के अहंकार का झगड़ा

भाजपा छींका टूटने की उम्मीद में बैठी हुई थी। मगर राहुल गांधी और नए अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने जिस तरह लगातार चार घंटे तक दोनों नेताओं गहलोत और पायलट की धैर्यपूर्वक बात सुनी और शांति से दोनों को उचित न्याय का भरोसा दिलाया उससे सिर्फ भाजपा ही नहीं कांग्रेस में भी दोनों के उग्र समर्थक वे लोग निराश हुए जो झगड़े में ही फायदा देख रहे थे।

जिन पांच राज्यों में इस साल विधानसभा के चुनाव होना हैं उनमें अभी तक राजस्थान अकेला ऐसा था जहां कांग्रेस और भाजपा बिल्कुल बराबरी की स्थिति में थे। इस मामले कि दोनों जगह बराबर की अंदरुनी फूट थी। कांग्रेस में गहलोत और सचिन का विवाद और भाजपा में वसुन्धरा राजे वर्सेस मोदी के अहंकार का झगड़ा। भाजपा में प्रधानमंत्री मोदी ने सब जगह अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया है। एक से लेकर ग्यारह नंबर तक वे ही वे हैं। इसके बाद किसी का नंबर शुरू होता है और वह भी बाहरवें खिलाड़ी के रूप में। एक्स्ट्रा खिलाड़ी। मगर ग्वालियर घराने की, भाजपा को बनाने वाली राजमाता विजयाराजे सिंधिया की बेटी वसुन्धरा को यह मंजूर नहीं।

भतीजे ज्योतिरादित्य सिंधिया ने सबके सामने सिर झुकाना मंजूर कर लिया मगर उनकी छोटी बहन मध्य प्रदेश में मंत्री यशोधरा राजे भी अपनी ठसक के साथ रहती हैं। उन्हें भी किसीने भतीजे ज्यतिरादित्य की तरह सिर झुकाकर राजनीति करते नहीं देखा। ग्वालियर के सिधिया घराने की यही परंपरा थी। चाहे राजमाता रही हों या माघवराव सिंधिया। दोनों मां बेटे स्वाभिमान के साथ राजनीति करते रहे।

वसुन्धरा को झुकाना मुश्किल: PM

ऐसे में वसुन्धरा को झुकाना प्रधानमंत्री मोदी के लिए मुश्किल हो रहा है। वसुन्धरा वहां भाजपा की तो सबसे बड़ी नेता तो हैं हीं। पार्टी के बाहर भी उनका एक जनाधार है। वे राजस्थान की दोनों शक्तिशाली जातियों जाट और राजपूत में बराबर समादृत हैं। अब गेंद भाजपा के पाले में है। अगर उसे चुनाव मुकाबले का बनाना है तो वसुन्धरा को आगे करके चुनाव होगा। नहीं तो गहलोत और पायलट के साथ आने से मजबूत हो गई कांग्रेस के लिए चुनाव आसान हो जाएगा।

लेकिन यह सब परिदृश्य तब तक हैं जब तक कि, भाजपा कोई बड़ा दांव नहीं खेलती है। कर्नाटक की हार के बाद उसके लिए राजस्थान जीतना बहुत जरूरी है। बाकी जिन तीन बड़े राज्यों में चुनाव हैं उनमें तेलंगाना में वह है नहीं और शेष दो मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में उसकी स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं है।

मध्य प्रदेश के बारे में तो राहुल ने इतना साफ बोल दिया जैसा वह कभी बोलते नहीं हैं कि, वहां कर्नाटक की तरह जीतेंगे। 150 सीटें आएंगी। वहां की मींटिग में कोई विवाद नहीं था, बल्कि उत्साह का वातावरण था। कारण स्पष्ट है वहां मुद्दत बाद कांग्रेस एक होकर चुनाव लड़ने जा रही है।

 

दिग्विजय सिंह ने जिस तरह लक्ष्मण बनकर कमलनाथ का साथ देने का फैसला किया है वह बहुत बड़ी बात है। आज की राजनीति में यह कहीं दिखाई नहीं देता है। जब इतने बड़े कद का नेता और दो बार का मुख्यमंत्री अपने राज्य में कोई मांग, चाहना, शर्त नहीं रखे। केवल इस बात के लिए काम करे कि वहां कांग्रेस को वापस लाना है और कमलनाथ जो सिंधिया के विश्वासघात की वजह से अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए उन्हें वापस एक मौका देना है।

लंबे समय बाद कांग्रेस के लिए बनीं अनुकूल परिस्थितयां

देश में मध्य प्रदेश ही कांग्रेस के लिए एकमात्र ऐसा राज्य है जहां हर कार्यकर्ता के मुंह पर नेता के लिए एक ही नाम होता है वह है दिग्विजय सिंह का। बाकी राज्यों में दो या कई नेताओं में कार्यकर्ता विभाजित होते हैं मगर मध्य प्रदेश में ऐसा नहीं है। कमलनाथ भी इस बात को जानते हैं कि कार्यकर्ताओं में अगर कोई उत्साह भर सकता है और विपक्ष में रहते हुए भी उन्हें निडर रख सकता है तो वह राजा साहब ही हैं।

ऐसे ही छत्तीसगढ़ में भी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने साढ़े चार साल जो काम किया है उसकी दम पर उनकी वापसी मुश्किल नहीं लगती है। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को एक बेनिफिट और है कि वहां भाजपा के पास कोई नेता ही नहीं है। रमन सिंह मजबूत नेता थे मगर पिछले साढ़े चार साल भाजपा ने उन्हें कोई जिम्मेदारी न देकर उनके कद को बनाए नहीं रखा इसलिए अब वे कमजोर हो गए हैं। ऐसे में बघेल के लिए कोई बड़ी चुनौती नहीं है।

यह सब लंबे समय बाद कांग्रेस के लिए बनीं अनुकूल परिस्थितयां हैं। खरगे और राहुल का साथ कांग्रेस के लिए शुभ साबित हो रहा है। यात्रा के दौरान ही खरगे को अध्यक्ष बनाने का फैसला हुआ। और वह बहुत सही सबित हुआ। खरगे के साथ राहुल भी बहुत सहज हैं। दिग्विजय की तरह उन्हें भी नान स्ट्राइकर एंड पर खड़े होने में कोई परेशानी नहीं होती। बड़े खिलाड़ियों की यही निशानी होती है। राहुल की तरफ से कोई हस्तक्षेप नहीं होने से खरगे भी बहुत कुशलतापूर्वक अध्यक्ष पद की जिम्मेदारियों को निर्वहन कर रहे हैं।

राहुल जन नेता हैं, ये सभी जानते हैं

राहुल जन नेता हैं यह वे भी जानते हैं और राहुल को पहले भी संगठन के मामलों में कोई विशेष रूचि नहीं थी और अब तो बिल्कुल नहीं यह भी वे समझ गए हैं। इससे उन्हें संगठन चलाने में बहुत आसानी हो रही है। इसीका परिणाम कर्नाटक में मुख्यमंत्री के फैसले और फिर राजस्थान के युद्ध विराम में देखने को मिला।

यह सच है कि राजस्थान में फिलहाल युद्ध विराम ही हुआ है। युद्ध समाप्त नहीं। हां लेकिन युद्ध विराम भी लंबा होता है कई बार युद्ध समाप्ती तक। युद्ध समाप्ती का मतलब विधानसभा चुनाव तक है। उसके बाद फैसला हो सकता है। मगर तब तक दोनों को साथ मिलकर उस स्थिति को बनाने का प्रयास करना होगा जिसमें फैसला भी कोई बड़ा हो। मसलन मुख्यमंत्री बनने जैसा।

यह पक्का है कि राजस्थान में जीत के बाद दोनों का गहलोत और पायलट का कद बहुत बढ़ जाएगा। और उसी के अनुरूप राहुल और खरगे फैसला करेंगे। दोनों की बात सुनी और समझी इसलिए गई है कि कुछ करके दो। नहीं तो कोई फायदा नहीं।

बाबा भारती की कहानी जैसा हो जाएगा कि, कोई केन्द्रीय नेतृत्व अपने क्षत्रपों पर भरोसा करने को तैयार ही नहीं होगा। मोदी जी आज भी नहीं करते हैं। हरियाणा में चाहा तो 9 साल खट्टर से निकाल लिए। और महाराष्ट्र में देवेन्द्र फडनवीस को बना दिया। उत्तराखंड में को किसे बनाया किसे हटाया गिनती ही नहीं है।

तो कांग्रेस में राहुल आन्तरिक लोकतंत्र पर बहुत भरोसा करते हैं। अभी अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष का पूरी तरह गोदी मीडिया, कैमरों के सामने बाकायदा वोटिंग से चुनाव करवाया। सारा गोदी मीडिया पूरी प्रक्रिया के दौरान वहां था। मगर एक नुक्स नहीं निकाल पाया। यूथ कांग्रेस और एनएसयूआई के तो करवाते ही हैं। अब यह गहलोत और सचिन पर निर्भर है कि, वह किस तरह उन पर किए भरोसे को बना कर रखते हैं। ताकि आगे भी विश्वास की यह परंपरा कायम रहे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, यह उनके निजी विचार हैं)

 

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