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कांग्रेस संविधान संशोधन से संगठन कितना मजबूत: शकील अख्तर !

कांग्रेस एक्शन मोड (Congress Action Mode) में आ गई। रायपुर के अपने 85 वें महाधिवेशन की समाप्ति पर उसने जो घोषणा पत्र जारी किया है उसे अंग्रेजी में काल आफ एक्शन और हिन्दी में रायपुर की हुंकार कहा है। जिसमें कहा गया है कि,  पार्टी अपने रायपुर के संदेश को देश भर में पहुंचाएगी। अगर वह इसमें सफल हो गई तो 2024 में वह वास्तव में मोदी सरकार का तख्ता पलट सकती है। लेकिन हर भविष्य की चीज के साथ इसमें भी अगर मगर हैं। कांग्रेस का दोनों तरह का इतिहास है। एक 1980 और 2004 में शानदार वापसी का और दूसरा 2014 और 2019 में मौके गंवाने का। कांग्रेस जैसा कि प्रियंका गांधी ने अपने भाषण में कहा कि उसके पास बस एक साल का समय है। अगर वह इसका उपयोग ठीक तरीके से कर गई तो 2024 के लोकसभा चुनाव भाजपा के लिए मुश्किल हो जाएंगे। और अगर उसकी तैयारी ठीक नहीं हुई तो खुद उसके लिए मुश्किल हो जाएगी।

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लेकिन कांग्रेस ने जिस तरह अपने तीन दिन के महाधिवेशन में संकेत दिए है उससे तो लगता है कि कांग्रेस 2024 लोकसभा चुनाव के लिए पूरी तरह तैयार है। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा ने जो तूफान पैदा किया है वह उसका पूरा फायदा उठाने का प्लान बना रही है। तूफान को सही दिशा में मोड़ने का।

संगठन में जिस तरह युवा, दलित, पिछड़े, आदिवासी, महिला, अल्पसंख्यक को जोड़ने के लिए संविधान संशोधन किया है उसका कांग्रेस को फायदा होगा। कांग्रेस से एक ही शिकायत सबकी होती है कि उसका संगठन बहुत कमजोर है। संगठन में नई जान फुंकने के लिए जिस तरह राहुल की यात्रा का बड़ा असर रहा उसी तरह नए संशोधन भी कांग्रेस संगठन को और मजबूत करेंगे।

 

मगर सवाल यही है कि,  क्या कांग्रेस अपने सैद्धांतिक ताकत का व्यवहारिक उपयोग कर पाएगी? सैद्धांतिक रूप से कांग्रेस बहुत मजबूत पार्टी है। गांधी की सच्चाई, सादगी और त्याग की भावना से भरपूर। मगर गांधी की तरह ही उसे व्यवहार में उतारना बड़ी चुनौती है।

 

राहुल गांधी जब 2007 में कांग्रेस के महासचिव बने तब उन्होंने पार्टी के अग्रिम संगठनों की जिम्मेदारी संभाली थी। और एनएसयूआई और यूथ कांग्रेस में नई जान फुंकने के लिए वहां चुनाव करवाने की व्यवस्था की। यह अपने आप में क्रान्तिकारी शुरूआत थी। राहुल ने चुनावों में पूरी निष्पक्षता और पारदर्शिता बनाए रखने के लिए पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जे एम लिंगदोह की अध्यक्षता में एक चुनाव आयोग पार्टी का बना दिया था। यह पार्टी की व्यवस्था में बहुत बड़ा बदलाव था।

 

राहुल की मंशा थी कि मनोनयन बंद हो और लोकप्रिय, मेहनती युवा नेता, स्टूडेंट संगठन के पदाधिकारी बनें। लेकिन कोई भी व्यवस्था अकेली नहीं बन सकती है। जब बाकी सब जगह मनोनयन हो रहे हों, कांग्रेस में ही नहीं दूसरी पार्टियों में भी तब केवल एक युवा और छात्र संगठन में चुनाव के जरिए पदाधिकारी तय हो पाना मुश्किल काम था। मगर राहुल ने चलाया। हालांकि लोगो ने इसके भी तोड़ निकला लिए और ताकतवर लोग दूसरे चुनावों की तरह इस चुनाव को भी लड़कर जीतने लगे। मगर राहुल ने एक आदर्श व्यवस्था कायम करने की पूरी कोशिश की।

ऐसे ही अभी पार्टी अध्यक्ष का चुनाव पूरी पारदर्शिता से करवाने के काम के पीछे भी राहुल का ही दबाव सबसे ज्यादा था। खुद चुनाव न लड़कर, परिवार के किसी सदस्य को न लड़ने देकर राहुल ने चुनाव सबके लिए खोल दिया था। बाकायदा चुनाव हुआ। और एक सामान्य कांग्रेस कार्यकर्ता से आगे बढ़ने वाले संघर्षशील नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को कांग्रेस ने अपना अध्यक्ष चुना। राजनीति में यह सब क्रान्तिकारी पहल हैं। मगर केवल एक पार्टी के करने से कुछ नहीं होगा। जिस समय खड़गे मतदान के द्वारा कांग्रेस अध्यक्ष बने उसी समय भाजपा ने अपने अध्यक्ष जेपी नड्डा को फिर से बिना किसी चुनाव के, चुनाव घोषणा के अध्यक्ष चुन लिया। ऐसे ही अन्य सभी पार्टियों में सपा, बसपा, टीएमसी में अध्यक्ष बनाए गए।

 

अब यहीं यह सवाल आता है कि जब पूरा राजनीतिक सिस्टम हर पार्टी में कुछ लोगों के हाथों में सिमटा हुआ है तो एक पार्टी अपने अंदर पूरा एक नया लोकतांत्रिक सिस्टम विकसित करके क्या कर सकती है? और वह भी तब जब वह विपक्ष में हो। सत्ता पक्ष की पार्टी की कुछ करने की धमक दूर जाती है। मगर विपक्ष की पार्टी और वह भी ऐसे समय जब मीडिया उसकी बात लोगों तक पहुंचाता नहीं है का कुछ नया करना उसे कितना फायदा पहुंचाएगा कहना मुश्किल है।

 

लोकसभा चुनाव के लिए पूरी तरह तैयार: कांग्रेस

कांग्रेस ने अपने संगठन में जो पचास प्रतिशत स्थान आरक्षित किए हैं उसका मतलब तो स्पष्ट है कि हाशिए के लोगों को मुख्य धारा में लाना। मगर इससे पार्टी को वास्तविक फायदा कितना होगा यह देखा जाना चाहिए। राजनीति में आदर्श के लिए आदर्श नहीं चल सकता। उसका पार्टी को राजनीतिक फायदा होना चाहिए। राजनीतिक फायदे से मतलब साफ है कि चुनाव जितना।

पार्टी चुनाव जीतकर ही अपने लक्ष्यों को पूरा कर सकती है। सोनिया गांधी 2004 में चुनाव जीती थीं। आदर्श कायम करते हुए उन्होंने एक योग्य और देश को नए दौर में ले जाने की सलाहियत रखने वाले अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद बनाया। मनमोहन सिंह ने बहुत काम किया। लेकिन यूपीए अध्यक्ष के तौर पर सोनिया गांधी ने हर जगह यह सुनिश्चित किया कि सरकार के हर काम का फल गरीबों और कमजोर लोगों को मिले।

 

कांग्रेस को यह फर्क समझना चाहिए। सोनिया पर बहुत आरोप लगे कि, वह सरकार के काम में हस्तक्षेप कर रही हैं। मगर यूपीए अध्यक्ष और कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर उनकी यह जिम्मेदारी थी कि वे उस वंचित वर्ग के लिए काम करें जिससे वादा करके वे अपनी पार्टी को सत्ता में लाईं थीं। इसलिए उन्होंने किसानों की कर्ज माफी, मनरेगा, खाध्य सुरक्षा, महिला बिल, आरटीआई जैसे क्रान्तिकारी कानून पास करवाए। सबको मालूम है कि इसमें यूपीए के घटकों सहित कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं का भी विरोध था। सोनिया ने महिला बिल के संदर्भ में साफ कह भी दिया था कि मुझे मालूम है कि मेरी पार्टी के ही कुछ लोग इसके विरोध में हैं। मगर महिलाओं को अधिकार देने के काम रोके नहीं जा सकते। राज्यसभा का सीन सबको मालूम है किस कदर हिसंक विरोध हुआ था। मगर सोनिया ने महिला बिल पास करवा कर ही माना।

तो यह सब सोनिया गांधी कर पाईं क्योंकि उनके पास सत्ता थी। अगर सत्ता ने होती तो कुछ भी नहीं होता। जिस मनरेगा ने पूरी ग्रामीण अर्थव्यवस्था बदल दी और जिससे भाजपा को सबसे ज्यादा चिढ़ है जिसे प्रधानमंत्री मोदी कांग्रेस के खोदे हुए गड्डे बता चुके हैं वह कभी नहीं आ पाती। किसान जो कर्ज के जाल से निकला था कभी नहीं निकल पाता। ऐसे बहुत सारे काम हैं। इन्दिरा गांधी की हरित क्रान्ति से लेकर बैंकों का राष्ट्रीयकरण, राजाओं के प्रीवीपर्स, प्रिवेलज खत्म करना, पाकिस्तान के दो टुकड़े करना या नेहरू द्वारा आईआईटी, एम्स बनाकर उच्च शिक्षा में क्रान्ति लाना जो सब बिना सत्ता में आए संभव नहीं थे।

राजनीति में किसी भी सुधार का पैमाना यह होता है कि, आपको वह जनता का समर्थन कितना दिलाता है। हर विचार, कार्यक्रम के लिए लोकतंत्र में जन समर्थन ही जरूरी है। यात्रा ने कांग्रेस की फसल फिर से बो दी। महाधिवेशन ने उस फसल को खड़ा कर दिया है। अब असली सवाल उसकी देखरेख और उसका फायदा उठाने का है। जैसा कि उपर शुरू किया था कि प्रियंका ने कहा एक साल! तो इस एक साल में आपको चुनाव की तैयारी करना है। मतलब यात्रा और महाधिवेशन से जो माहौल बना है उसे चुनाव जीतने में परिवर्तित करना है। विपक्षी एकता से लेकर अपना चुनावी तंत्र विकसित करने का काम। तभी संगठन में किए सुधारों का कोई वास्तविक मतलब होगा। वे केवल किताबी चीज बनकर नहीं रह जाएंगे।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं यह उनके निजी विचार हैं

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