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काम नहीं तो वेतन नहीं..सांसदों पर हो लागू: के. विक्रम राव !

संसद की अम्मा कहलाने वाली ब्रिटिश हाउस ऑफ कामंस का यह नजारा है अप्रैल 1653 का। कहीं इसी का पुनरावर्तन भारत में न हो ? तब जनरल ओलिवर क्रामवेल अपने सैनिकों की संगीनों के बल पर लंदन में सदन को खाली करा दिया था। एक ही घोषणा उसकी थी: “बेईमानों, भागो। सत्पुरुषों के लिए सदन छोड़ो।” और ब्रिटेन में राजशाही खत्म कर गणराज्य घोषित हो गया। बाद का इतिहास लंबा है। ऐसा प्रथम बार हुआ था। जनता हर्षित थी। उनके शातिर प्रतिनिधियों को उचित दंड मिल गया था। कई संसदीय लोकतंत्रों में ऐसा परिवर्तन बंदूक के बल होता रहा। पड़ोसी पाकिस्तान में तो कई बार हुआ।

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याद करें पहला था मार्शल मोहम्मद अयूब खान का जो बिना चुनाव के इस्लामी जम्हूरियत का सुल्तान बन बैठा था। निर्वाचित राष्ट्रपति मियां इस्कंदर अली मिर्जा से मार्शल मोहम्मद अयूब खान (1958) को सत्ता छीनी थी। खुद मुख्तार बन बैठा था। जनरल मियां परवेज मुशर्रफ का भी। गिने चुने लोकतंत्रों में भारत अभी शुमार है। कब तक ? यह प्रश्न उठेगा देर सबेर। संसद की गरिमा गिरेगी, सदस्य हाथापायी करेंगे। शोर-शराबे से विरोध होगा, न कि संवाद द्वारा। परंपराओं का निर्वहन कर। विचार बचाए शब्दों के तख्तियों से व्यक्त होंगे।

उन्हीं राष्ट्रपति मियां इस्कंदर अली मिर्जा ने मार्शल मोहम्मद अयूब खान को पहला मार्शल लॉ कमांडर नामित किया। अयूब (1958) संसद भंग कर राष्ट्रपति बन बैठा। फिर कई फौजी आए। मार्शल आगा मोहम्मद याहया खान ने तो मुजीबुर रहमान की बहुमत वाली संसद भंग कर दी। भारत तोड़कर बना पाकिस्तान भी तब टूट गया। बांग्लादेश बना। चुनी संसद को वापस लाने में दो साल लगे। जनरल मियां मोहम्मद परवेज मुशर्रफ ने निर्वाचित प्रधानमंत्री मियां नवाज शरीफ को जेल में डाला। मार्शल जियाउल हक ने तो निर्वाचित प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी दे दी। खुद सर्वे सर्वा बन गया।

क्या हुआ दूसरे पड़ोसी बर्मा में ? फौजी तानाशाही ने अपार बहुमत से चुनी गई आंग सान बंबई को आज तक जेल में बंद कर रखा है। एशिया में कितने लोकतांत्रिक गणराज्य रह गए ? सवाल है कि वहां लोकतंत्र किन कारणों से खत्म किया गया ? यह एक चेतावनी है प्रत्येक लोकतंत्रप्रेमी को। पद्म भूषण जनरल पंडित तपीश्वरनाथ रैना भारत के सेनाध्यक्ष थे। तब खबर साया हुई थी (मार्च 1977 में) कि पराजित प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने वार्ता के लिए जनरल रैना को बुलाया था। पर लोकसभा चुनाव के जनवादी परिणाम को स्वीकार करना पड़ा। मोरारजीभाई देसाई प्रधानमंत्री बने।

भारतीय संसद (दोनों सदनों) में दिखे विचार पक्ष पर पिछले पाँच दशकों की अवधि वाले दौर का विश्लेषण कर लें। जगजाहिर है कि आम वोटर को वितृष्णा हो गई है। ताजातरीन घटना गत अप्रैल माह की है जब केवल आठ मिनट में अर्थात 480 क्षणों में ही लोकसभा की कार्यवाही स्थगित कर दी गई। क्यों ? अब हर सुधि मतदाता को अखबरी रपट पर ध्यान देना होगा कि आखिर क्यों ऐसी नौबत आती है कि भारतीय गणराज्य की शीर्ष पंचायत में चर्चा ही नहीं हो पा रही है।

मसलन 3 अप्रैल 2023 की कार्यवाही पर रपट देखें : बजट सत्र के दूसरे चरण की 13वीं बैठक बमुश्किल आठ मिनट चली। दो बजे तक स्थगित कर दी गई। दोबारा बैठक शुरू होने पर विपक्ष के हंगामे के कारण जैव विविधता संशोधन विधेयक पर चर्चा नहीं हो पाई। राज्यसभा की कार्यवाही शुरू होते ही विपक्षी सदस्यों ने अदानी मामले में जेपीसी गठन की मांग कर हंगामा शुरू कर दिया। इसके कारण सभापति ने कार्यवाही दो बजे तक के लिए स्थगित कर दी। दोबारा कार्यवाही शुरू होने पर हंगामे के बीच ही वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने प्रतिस्पर्धा संशोधन विधेयक को विचार और पारित कराने के लिए पेश किया। इसके तत्काल बाद विधेयक को ध्वनि मत से मंजूरी दे दी गई।

तो अब देखिए भारतीय जनता पार्टी ने विपक्ष रहकर क्या गत कर रखी थी संसद की ? तब 15वीं लोकसभा के दूसरे सत्र (1 सितंबर 2012 : नरेंद्र मोदी के उदय के पूर्व) सिर्फ छः दिन ही बैठकें हुई। केवल चार विधेयक ही पारित हो सके, जबकि तीस बिल सूचीबद्ध थे। मनमोहन सिंह सरकार के संसदीय कार्य मंत्री पवन कुमार बंसल का कहना है कि सदन की कार्यवाही न चलने के कारण हर दिन नौ करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है।

सत्र के आखिरी दिन लोकसभा में स्पीकर मीरा कुमार ने जैसे ही प्रश्नकाल की शुरुआत की भाजपा सदस्य उठकर अध्यक्ष के आसन के समीप आ गए। उन्होंने कोयला ब्लॉक आवंटन में कथित धांधली की बात कहते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के इस्तीफे की मांग की और नारेबाजी की। सदन में हंगामा बढ़ता गया क्योंकि अन्नाद्रमुक तथा द्रमुक के सदस्यों ने भी भाजपा के साथ कई अन्य मुद्दों पर नारेबाजी की। सदन में शांति कायम न होते देख लोकसभा अध्यक्ष ने कार्यवाही स्थगित कर दी थी।

तात्पर्य यही कि संसद के दोनों पहिए : सत्तारूढ़ और प्रतिपक्ष अपनी भूमिका बदल देते हैं, जब-जब जगह बदलती है। संसदीय नियम है कि वही सदस्य बोलेगा जिस पर अध्यक्ष की नजर पड़ेगी। ब्रिटेन का शब्द है : “कैचिंग दि आई ऑफ स्पीकर।” पर भारत में स्पीकर को ही अंधा बना माना जाता है। सदस्यों की हरकत पर कल (27 जुलाई 2023) सांसद काला कपड़ा पहनकर सदन में आया। काला कपड़ा मृत्युशोक का प्रतीक है। तो अब लोकतंत्र का भविष्य क्या माना जाए ?

प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संसद में कहा था कि “संसद में व्यवहार के भी तौर तरीके तय रहते हैं। शालीनता हो।” मगर 1952 की सर्वप्रथम बैठक में भी हंगामा हुआ था। हालांकि उसका कारण सही था। सत्ता में आते ही नेहरू सरकार निरोधात्मक कानून ले आई। इसे अंग्रेजी हुकूमत ने राष्ट्रवादियों के विरुद्ध प्रयोग किया था। प्रथम सदन में मुख्य विपक्ष में कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट सदस्य थे, जो आजादी के पूर्व और बाद में भी जेल जाते रहे थे। उन्होंने इस ब्रिटिश काले कानून का भारतीय गणराज्य चलाने का जमकर विरोध किया था।

प्रथम लोकसभा में बवंडर उठाया। निरोधात्मक कानून को बदलना पड़ा था। 15वीं लोकसभा में भाजपा प्रतिपक्ष ने संप्रग वाले मनमोहन सिंह को चलने नहीं दिया था। तो उधर जॉर्ज फर्नांडिस के खिलाफ सोनिया-कांग्रेस ने लोकसभा ठप कर दी थी। हालांकि बाद में सीबीआई की जांच में न्यायमूर्ति शैलेंद्र नाथ फुकन ने रक्षा मंत्री को कथित ताबूत घोटाले में बेकसूर पाया था। मगर सदन चलने नहीं दिया गया था।

स्पष्ट है कि आम करदाता के कष्टार्जित वेतन से पोषित संसद में ऐसा निर्मम और संवेदनहीनता से व्यवहार किया जाए ? संसद का बहिष्कार नहीं यह बहस का तिरस्कार है। तो तार्किक प्रश्न उठता है कि : “क्या संसद के दिनों के वेतन आदि का भुगतान रोक देना चाहिए ? हम श्रमजीवीयों पर तो यह कानून पूर्णत्या लागू है कि “काम नहीं तो, दाम नहीं।” अर्थात हम हड़ताल करते हैं तो वेतन कटता है। तो इन निर्वाचित जनप्रतिनिधियों पर यह नियम क्यों न लागू हो। वर्ना फिर कभी कोई जनरल ओलिवर क्रॉमवेल आ गया तो ?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, यह उनके निजी विचार हैं)

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