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हस्ती है कल्याण सिंह की, मिट नहीं सकती, कोई भी चाहे: के. विक्रम राव

लोधी राजपूत कल्याण सिंह की आज (21 अगस्त 2023) पुण्यतिथि है। दो वर्ष पहले वे चले गये थे, ढेर सारी स्मृतियां छोड़कर। कई मधुर, कुछ तिक्त, पर एक भी मिलावटी नहीं। आधुनिक इतिहास के इस महानायक की छवि पर कालिख पोतने की बहुतेरी कोशिशें चलती रहीं। पर यह यशस्वी जननायक सदैव रहा देदीप्यमान ही। दृन्फू की भांति। इस संस्कृत शब्द के हिंदी में समानार्थी हैं: वज्र और सूर्य ! कल्याण सिंह में इन दोनों की खूबियां रहीं। सख्ती और चमक भी !

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एक लम्हे के लिए कल्पना कीजिए यदि दिसंबर 1992 में बजाय कल्याण सिंह के कोई ऐरागैरा भाजपाई मुख्यमंत्री पद पर रहता तो ? मसलन कल्याण सिंह को हटाकर अटल बिहारी वाजपेई ने 77-वर्षीय राम प्रकाश गुप्ता जैसे को वानप्रस्थ आश्रम से खोजकर सिंहासन पर बैठाया था। कल्याण सिंह को अटलजी नहीं पसंद करते थे। यथार्थ यह था कि केवल कल्याण सिंह ही फैजाबाद में उस ढांचे को नेस्तनाबूद करा सकते थे, जिसे उजबेकी लुटेरे जहीरूद्दीन बाबर ने भगवान राम के जन्म स्थल पर बनवाया था।

कारसेवक अपने लक्ष्य को इसलिए हासिल कर पाएं क्योंकि कल्याण सिंह मुख्यमंत्री थे। नतीजन वे बर्खास्त हुए। सुप्रीम कोर्ट ने दंड में उन्हें जेल में दिन भर कैद रखा। पर हिंदुओं को सदियों पुरानी मस्जिद से मुक्ति मिली। यदि बाबरी ढांचा धूलधूसरित न होता तो सर्वोच्च न्यायालय उस पवित्र भूखंड को राम भक्तों को कैसे दे पाता ? ढांचा रहा होता तो क्या प्रधान न्यायमूर्ति रंजन गोगोई हिंदुओं को वक्फ का भूखंड आवंटित कर पाते ?

यहां दो प्रमाणित वाकये हैं जब महाबली, सर्वोपरि अटल बिहारी वाजपेई ने मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के साथ खराब बर्ताव किया था। यह सत्य कथन है अक्टूबर 1995 का। संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक (न्यूयॉर्क) में हो रही थी। प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव और उनके मंत्री भुवनेश्वर चतुर्वेदी के साथ उस सरकारी प्रतिनिधि मंडल में अटल बिहारी वाजपेयी, तब नेता, लोकसभा विपक्ष, भी बैठे थे।

उसी माह उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार बनाने के प्रयास चल रहे थे। मायावती की सरकार जा चुकी थी। भाजपा का दावा कल्याण सिंह के नाम पर था। न्यूयार्क के उस सदन में प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव और नेता विपक्ष अटल बिहारी वाजपेई के बीच वार्तालाप हुआ।

अटलजी ने राव से कहा : “कल्याण सिंह हमारे बहुत विरोध में हैं। उनको (मुख्यमंत्री) नहीं बनना चाहिए।” उसी शाम को चतुर्वेदी ने नरसिम्हा राव से पूछा : “क्या वाजपेईजी की मदद की जाए ?” तो राव का निर्देश था : “हां, कह दो वोराजी से।” वे यूपी के राज्यपाल थे। (इंडियन एक्सप्रेस की श्रीमती नीरजा चौधरी की नवीनतम पुस्तक : “हाउ पीएम डिसाइड” : प्रकाशक एलेफ बुक कंपनी की समीक्षा : “दि हिंदुस्तान टाइम्स” में छपी है : 20 अगस्त 2023, पृष्ठ 12, कालम 1-3)।

प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई किस प्रकार मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की अवमानना करते रहे यह जानीमानी बात है। यह 1999 की कालवाधि का किस्सा है। अटलजी प्रधानमंत्री बने थे। अपना लोकसभा का नामांकन करने वाजपेयीजी लखनऊ आए। कलेक्ट्रेट के चुनाव कार्यालय में नामांकन के बाद, पड़ोस के बेगम हजरत महल पार्क में जनसभा की। वहां सभी मंचासीन नेता बोले।

लालजी टंडन, राजनाथ सिंह आदि। अंत में नाम पुकारा गया प्रत्याशी अटल बिहारी वाजपेई का। अर्थात मंचासीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को वक्ताओं में नहीं शामिल किया गया। इसका मैं साक्षी था। वहां पार्क में मौजूद हजारों श्रोता भी। इसके ठीक बाद उसी शाम नाराज कल्याण सिंह प्रधानमंत्री की चाय पार्टी में नहीं गए। मामला गंभीर था। ये घटनाएं यूपी के दैनिकों में खूब प्रकाशित हुईं थीं।

मगर कल्याण सिंह के एक निर्णय को राजनेताओं और रामभक्तों के आजतक समझ में नहीं आया। घोर शत्रु मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी में वे क्यों शामिल हो गये ? शुरुआत कुछ यूं हुई। एनडीए के अटल बिहारी वाजपेयी 10 अक्टूबर 1999 को प्रधानमंत्री बने। इसी के बाद कल्याण सिंह को हटाने के लिए मांग उठने लगी। उनके और वाजपेयीजी के बीच कड़वाहट जगजाहिर हो गई थी। विवश होकर कल्याण सिंह ने मुख्यमंत्री पद से 12 नवंबर 1999 को इस्तीफा दिया। रामप्रकाश गुप्त को मुख्यमंत्री बनाया गया।

वाजपेयी के खिलाफ मोर्चा खोलने पर कल्याण सिंह को बीजेपी शीर्ष नेतृत्व ने पार्टी से निष्कासित कर कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया। बीजेपी के तत्कालीन अध्यक्ष कुशाभाऊ ठाकरे ने कल्याण सिंह को छह साल के लिए बीजेपी से बाहर कर दिया। इसके बाद कल्याण सिंह ने अपने समर्थकों के साथ मिलकर राष्ट्रीय क्रांति पार्टी का गठन किया। फिर वे मुलायम सिंह की पार्टी में शामिल हो गए।

मगर वाह रे कल्याण सिंहजी ! उनकी कुछ हस्ती ऐसी रही कि भाजपा को उन्हें फिर स्वीकारना ही पड़ा। मगर परिस्थितियां काफी बदल गई थीं। गोमती में भी इतने अरसे में बहुत पानी बह चुका था। वक्त और माहौल बदल गया था। इसी परिवेश में एक घटना का उल्लेख कर दूं। तब लखनऊ के राज भवन में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई का प्रेस से मिलिये कार्यक्रम था। मैं भी उपस्थित रहा। मंच पर कल्याण सिंह तब अटलजी के पड़ोसवाली कुर्सी पर विराजमान थे। पंडाल में आखिरी पंक्ति में काफी पीछे मैं बैठा था। आखिरी सवाल पूछने मैं खड़ा हुआ और हाथ उठाया। प्रधानमंत्री ने पूछने की अनुमति दी।

मेरा प्रश्न था : “प्रधानमंत्रीजी, पंडित मौलीचंद्र शर्मा, प्रो. बलराज मधोक, डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी, दत्तोपंत ठेंगडी, गोविंदाचार्य जैसे लोगों ने भी आपसे असहमति व्यक्ति की थी तो उन्हें दरकिनार कर दिया गया। अब कल्याण सिंह को कैसे फिर अपना लिया आपने ?” अटलजी का जवाब पड़ा नपातुला था : “कल्याण सिंहजी भाजपा को शक्ति प्रदान करते रहें।” अर्थात कल्याण सिंह एक हस्ती हैं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इसीलिए आज वे बहुत याद आते हैं। स्मरणीय हैं। सम्मानित तो रहेंगे ही।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, यह उनके निजी विचार हैं)

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