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‘हिंदी’ में जीते थे न्यायमूर्ति प्रेमशंकर गुप्त, हिंदी में 5000 फैसले देने वाले जस्टिस के बारे में जानिए सबकुछ

फिजी में 12 वें विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन किया गया है। हिंदी भाषा को बढ़ावा देने और भारत की संस्कृति से दुनिया को रूबरू कराने के लिए यह शानदार प्रयास किया जा रहा है। भारत का प्रतिनिध दल फिजी पहुंच गया है। विदेश मंत्री एस जयशंकर ने इसका उद्घाटन किया है। दुनियाभर में हिंदी भाषा को आज जो महत्व मिल रहा है, उस माहौल में हम आपको अपने देश के एक ऐसे न्यायमूर्ति से रूबरू कराने जा रहे हैं जो हिंदी में ही जीते थे। जिन्होंने अपनी जिंदगी में 5000 से अधिक फैसले हिंदी में दिए। आज देश के न्यायालयों में हिंदी भाषा को लेकर जितनी सजगता दिखती है, उसके पीछे न्यायमूर्ति प्रेम शंकर गुप्त का अहम योगदान रहा है।

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इलाहाबाद हाईकोर्ट में जस्टिस रहते हुए न्यायमूर्ति प्रेम शंकर गुप्त ने ही सबसे पहले हिंदी में आदेश देना शुरू किया था।  उन्होंने अपने 15 वर्ष के न्यायाधीश कार्यकाल में 5000 से अधिक फैसले हिंदी में दिए थे। यूपी के इटावा जिले में 15 जुलाई 1930 को उनका जन्म हुआ था। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा इटावा से ही पूरी की और फिर इलाहाबाद विश्वविद्यालय से विधि स्नातक की डिग्री ली।

 

1951 में उन्होंने वकील के रूप में अपने करियर की शुरुआत अपने गृहजनपद से ही। 1962 में अधिवक्ता के रूप में पंजीकृत हुए और बहुत जल्द ही उन्होंने अपनी एक अलग पहचान बना ली। इसी कारण से 1964 में प्रदेश सरकार ने उन्हें इटावा में जिला शासकीय अधिवक्ता (फौजदारी) नियुक्त किया। ययहां वे 1971 तक काम करते रहे।

 

इसके बाद न्यायमूर्ति गुप्त इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वकालत करने चले गए। 70 के दशक में न्यायालयों में अंग्रेजी का जबरदस्त प्रभुत्व था। यूं तो जस्टिस प्रेम शंकर गुप्त अंग्रेजी के भी प्रख्यात विद्वान थे लेकिन उन्होंने अपनी मातृभाषा हिंदी को ही आगे बढ़ाने का निश्चय किया। उन्होंने वकील रहने के दौरान हाई कोर्ट में बहसों में हिंदी को धीरे-धीरे शामिल करना शुरू कर दिया।

 

हिंदी में उनके द्वारा किए गए कई ऐसे बहस हैं जिनका उदाहरण आज भी लोग देते हैं। और यहीं से धीरे-धीरे इलाहाबाद हाई कोर्ट में हिंदी के प्रति भी एक माहौल बनने लगा। जल्द ही उन्हें इलाहाबाद हाई कोर्ट में शासकीय अधिवक्ता नियुक्त कर दिया गया।

 

1977 में उन्हें इलाहाबाद उच्च न्यायालय का स्थाई न्यायाधीश नियुक्त किया गया। बतौर न्यायाधीश उन्होंने 1992 तक यहां पर अपनी सेवाएं दीं। इस दौरान हिंदी के प्रति उनका प्रेम और हिंदी को न्यायालयों की भाषा बनाने के लिए उनका कर्मठ प्रयास जबरदस्त दिखा।

 

हाई कोर्ट की परंपरा से अलग हो बनाई अपनी लकीर

हाई कोर्ट में अंग्रेजी में आदेश देने की परंपरा को तोड़ते हुए उन्होंने ठान लिया कि वे अपने करियर में सभी आदेश हिंदी में देंगे। पहले तो लोगों को लगा कि यह सिर्फ एक बयानबाजी है, ऐसा होगा नहीं लेकिन जब जस्टिस गुप्त ने हिंदी में आदेश लिखवाने शुरू किए तो सब लोग चौंक गए। सबको लगता था कि हाई कोर्ट के कामकाज में हिंदी को अपना पाना मुश्किल होगा लेकिन जस्टिस गुप्त ने यह साबित कर दिया कि अपनी मातृभाषा में काम करना ना सिर्फ सहज है बल्कि एक गर्व की भी बात है।

 

15 साल में 5000 आदेश हिंदी में दिए

आलम यह रहा कि अपने 15 साल के लंबे कार्यकाल में उन्होंने करीब 5000 आदेश हिंदी में दिए। बतौर न्यायाधीश हिंदी में इतने अधिक फैसले देने वाले वे देश के इकलौते जज भी हैं। 23.01.2013 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। लेकिन अपने पीछे वे ऐसी नजीर छोड़ गए कि आज जब भी अदालतों में हिंदी की बात होती है, उनकी बात जरूर होती है।

 

अंग्रेजी के दबदबा को खत्म किया था

उनके बेटे और वर्तमान में यूपी राज्य उपभोक्ता आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति अशोक कुमार उन्हें याद करते हुए कहते हैं, मेरे पिताजी ने हमेशा हिंदी की लड़ाई लड़ी। जिस समय हाई कोर्ट में अंग्रेजी का दबदबा था, उस वक्त में हिंदी में आदेश देना आसान काम नहीं था, लेकिन वे समर्पित थे इसके लिए और उन्होंने कर दिखाया। वे मातृभाषा और भारतीय संस्कृति को लेकर हमेशा ही सजग रहे और मैं भी कोशिश करता हूं कि उनके पदचिह्नों पर आगे बढ़ता रहूं।

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