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कांग्रेस को अपने पुराने जाति समीकरण और रोजगार पर ही खेलना होगा !

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जातिगत जनगणना ठीक है। मगर उसके लिए पहले सरकार बनाना होगी। अपना आधार छोड़कर कांग्रेस यह काम नहीं कर सकती। दलित पिछड़े आदिवासियों को उपर उठाना कांग्रेस का हमेशा से लक्ष्य रहा है। लेकिन इसके साथ ही उसने हमेशा समावेशी राजनीति की है। समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चली है।


इन्दिरा गांधी का एक किस्सा बताते हैं। 1977 में जब सरकार चली गई और देश भर से नेता आकर उनसे पूछते थे कि अब क्या करें? तो इन्दिरा जी कहती थीं कि गरीब कमजोर वर्ग में जाओ, खासतौर पर दलित पिछड़े आदिवासियों के बीच उन्हें एकजुट करो आगे बढ़ाओ। तब उनके पास आने वाले नेता जो ज्यादातर सवर्ण ब्राह्मण और अच्छी सामाजिक स्थिति के लोग होते थे, कहते थे तो फिर हमारा क्या होगा?


इन्दिरा जी कहती थीं कांग्रेस बहुत बड़ी पार्टी है। इसमें सबके लिए जगह है। दलित पिछड़े के लिए तो ब्राह्मण और बाकी सवर्ण समुदाय के लिए भी।


यहां लोग सवाल पूछ सकते हैं कि सवर्णों में वे केवल ब्राह्मणों का नाम क्यों लेती थीं। तो इसका कारण बड़ा स्पष्ट है। पहला तो यह कि उस समय ब्राह्मण कांग्रेस के साथ था। दूसरा इन्दिरा जी पूरी तरह राजनीतिक सोच वाली नेता थीं। वे जानती थीं कि भारतीय समाज में ब्राह्मण दूसरी जातियों को साथ लेकर चलने का गुण जानता है। वह उस सामाजिक स्थिति का नहीं है जहां उसे अपने अस्तित्व के लिए दूसरी कमजोर जातियों से हमेशा लड़ना होता है।


सामंतवादी ताकतें अपने खेतों में बेगार करवाने के लिए दलित आदिवासी पर शिकंजा कसे रखती थीं। जमींदारी उन्मूलन का विरोध ब्राह्मणों ने नहीं किया था। गांव में दलित पिछड़ों के आपसी संघर्ष भी होते हैं। मगर दोनों का मददगार ब्राह्मण होता है और दोनों का कामन एनिमी ( साझा शत्रु ) जमींदार।’
यहां किसी जाति की महत्ता बताना या किसी की कम करना उद्देश्य नहीं है। बल्कि भारतीय सामाजिक जीवन की सच्चाई रखना है। कोई किसी और एंगल से भी रख सकता है। रखना चाहिए। अभी इतनी स्वतंत्रता है कि यह सब लिख बोल सकते हैं। जब नहीं होगा तो फिर यह सब कुछ नहीं आएगा।
तो खैर भारतीय समाज की इस हकीकत को दलित राजनीति करने वाली मायावती ने बहुत अच्छी तरह समझा था। समझती तो भाजपा भी है और इसका सबसे ज्यादा उपयोग करती है मगर देश के सबसे ज्यादा पढ़े लिखे समुदाय में आने वाला ब्राह्मण बीजेपी की धर्म की राजनीति में फंसा जरूर मगर अब उसकी स्वतंत्र चेतना वहां फड़फड़ा रही है। एक बंधी हुई सोच में कोई भी पढ़ा लिखा समुदाय कम्फर्टेबल नहीं रह सकता।
अभी मायावती का हमने जिक्र किया तो उन्होंने 2007 में जो पहली बार और एक ही बार यूपी में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी वह ब्राहम्णों को साथ लाने की सोशल इंजीनियरिंग के जरिए। संख्या में कम होने के बावजूद प्रभाव में वे ज्यादा होते हैं। और दलितों के साथ उनका कोई सीधा टकराव नहीं होता। दलितों में गांवों में जो हमले होते हैं। शादी में घोड़ी पर नहीं चढ़ने दिया जाता, मुछें रखने पर हमला किया जाता है जैसे तमाम मामलों में ठाकुर या अब ओबीसी भी ज्यादा पाए जाते हैं।
कांग्रेस इसीलिए शुरू से दलित ब्राह्मण और मुसलमान का आधार बनाकर काम करती रही है। मुसलमान बीच में इधर उधर गया मगर अब वापस कांग्रेस के साथ आ गया है। लेकिन दलित और ब्राह्मण को वापस लाना ही कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। इसमें भी दलित सबसे मुश्किल है। वह जाति के नाम पर मायावती के साथ है तो धर्म के नाम पर भाजपा के। लेकिन कांग्रेस के पास उस वापस लाने का एक वही तरीका है। पुराने वाला सामाजिक समीकरण का। केन्द्र में और हिन्दी प्रदेशों के ज्यादातर राज्यों में भाजपा के आने के बाद दलितों पर अत्याचार बढ़े हैं। सरकार में, पुलिस में तो सुनवाई हो नहीं रही गांव में समाज में साथ खड़े होने वाले भी नहीं बचे। पहले ब्राह्मण होता था। मगर अब भाजपा की मानसिकता में ढल जाने के बाद उसने भी दलितों से दूरी बना ली।
इन्दिरा गांधी की बात यहीं याद आती है कि कमजोर वर्ग के बीच जाकर काम करो। उनका सामाजिक नेतृत्व करो। कांग्रेस को यही करने की जरूरत है। जब जातिगत आधार पर सभी समुदाय अपने अपने ठिकाने ढूंढ चुके हैं तो कांग्रेस को समझना पड़ेगा कि कैसे वह अपने पुराने जनाधार को वापस लाए।
जब राजस्थान में गहलोत और सचिन में भयानक गुटबाजी चल रही थी तो हमने लिखा था कि या तो कांग्रेस नेतृत्व दोनों पर सख्ती करके उन्हें लड़ने से रोके। या किसी तीसरे को नेतृत्व सौंपे। उस समय हमने यह भी लिखा था कि कांग्रेस शासित किसी राज्य में ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं है किसी ब्राह्मण को अगर कांग्रेस लाती है तो उसका असर पूरे उत्तर भारत पर पड़ेगा। मगर कांग्रेस नेतृत्व ने कुछ नहीं किया वह केवल यही बताती रही कि हमारे चार मुख्यमंत्रियों में से तीन ओबीसी हैं। उससे कुछ नहीं हुआ। और राजस्थान तो साफ हुआ ही। छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश भी साफ हो गया।
जाति की राजनीति करना आसान नहीं है। कभी कांग्रेस इसमें खिलाड़ी थी और बीजेपी धर्म की राजनीति खूब करने के बावजूद जाति की राजनीति में कभी सफल नहीं हो पाती थी। मगर अब बीजेपी समझ गई है। जिस राजस्थान में कांग्रेस ओबीसी राजनीति में ही उलझी रही वहां जीतते ही भाजपा ने ब्राह्मण मुख्यमंत्री बना दिया। जबकि इससे पहले ब्राह्मण राजनीति में उसका कोई असर नहीं था। उसके दो मुख्यमंत्री राज्य में रहे दोनों गैर ब्राह्मण थे। एक भैरोसिंह शेखावत राजपूत और दूसरी वसुन्धरा राजे सिंधिया, जो जाट परिवार में ब्याहीं। जबकि उधर कांग्रेस के चार मुख्यमंत्री ब्राहम्ण हुए।
अभी राजस्थान की 25 सीटों में से एक पर भी कांग्रेस ने ब्राह्मण उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया। न्यूज चैनलों में सबसे मजबूती से कांग्रेस का पक्ष रखने वाले प्रवक्ता आलोक शर्मा को भीलवाड़ा से टिकट देने की बात हुई थी। मगर अंतिम क्षणों में काट दिया। वहां कांग्रेस की तरफ से 8 बार ब्राह्मण उम्मीदवार जीता है। उधर जयपुर में भी यही किया। वहां सुनील शर्मा का काटा तो सती प्रथा का नंगी तलवार हाथ में लेकर खुला समर्थन करने वाले भैरोसिंह शेखावत के सगे भतीजे प्रताप सिंह खाचरियावास को दे दिया। जो अभी विधानसभा चुनाव हारे हैं।
आज की राजनीति जातिगत समीकरण साधने की है। साथ ही माहौल बनाने के लिए जनता के असली मुद्दे उठाने की। भाजपा की धर्म की राजनीति चल नहीं रही है। वह जातिगत समीकरण साधने में लगी है। धर्म का मुद्दा तो वह केवल नरेटिव बनाने के लिए यूज करेगी। मगर उसे मालूम है कि वह चलने वाला नहीं है।
ऐसे में कांग्रेस को अपने पुराने जनाधार ब्राह्मण मुसलमान दलित को फिर से साधने के साथ सर्वसमाज के बेरोजगारी, महंगाई, सरकारी शिक्षा, सरकारी चिकित्सा, सरकारी नौकरियां फिर से निकालने को अजेंडा बनाना होगा।
भाजपा की बिछाई पिच पर जाने से बचना होगा। भजपा महिला को कुछ भी कह ले कर ले असर नहीं पड़ता। मगर कांग्रेस ऐसा करती है जैसे अभी कंगना रनौत के मामले में सामने आया तो उसे मुश्किल हो जाती है।
यह क्षेत्र है अपना अपना। भाजपा की सोच है महिला विरोधी। वह महिला बिल पास करके भी आरक्षण नहीं देती। उसे कोई नुकसान नहीं होता। मगर कांग्रेस के मुंह से गलती से भी कुछ निकल जाता है तो सब उसके पीछे पड़ जाते हैं। क्योंकि उससे तवक्को नहीं होती।
आफिस में एक कम पढ़ा लिखा छोटा कर्मचारी महिला विरोधी बात करता है तो उसकी सज़ा डांट तक ही होती है। मगर जब एक पत्रकार करता है तो संपादक को ज्यादा कड़ा स्टेंड लेना पड़ता है। क्योंकि पत्रकार से इस घटियापन की उम्मीद नहीं होती।
कांग्रेस एक अलग तरह की पार्टी है। भारत की विविधता और समावेशी संस्कृति की सच्ची प्रतिनिधि। भाजपा अपने संकीर्ण रवैये की वजह से बन नहीं पाई। कांग्रेस को यही समझना है और अपने आजमाए हुए पुराने नुस्खों से काम करना है। भाजपा के हथकंडों में नहीं उलझना है। भाजपा की राजनीति बिल्कुल अलग है। वह न कांग्रेस के काम में आएगी और न अब देश में ही चल पाएगी।

शकील अख्तर
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं , यह उनका निजी विचार है )

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