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मोदी नरेटिव से ही जीतते हैं और इसी से हारेंगे: शकील अख्तर

क्या विपक्ष की समझ में अभी भी नहीं आ रहा कि उसकी हार के क्या कारण हैं? केवल एक और बहुत सरल।
कारण है नरेटिव। एक माहौल, एक कहानी! उसे बदलना होगा। और वह भी बहुत सरल है। बस थोड़ा अपने दायरों से बाहर निकलना होगा।

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आज नरेटिव (कहानी) क्या है! सब सही हो रहा है। कुछ भी गलत नहीं हो रहा। इतना बड़ा रेल एक्सिडेंट भी। ट्रैक चालू कर दिए हैं। रेल मंत्री ने घटना स्थल का दौरा किया। पीएम भी पहुंचे। और सबसे बड़ी बात सीबीआई इंक्वायरी घोषित कर दी है। जांच सिग्नल प्रणाली, रेल पटरियों की देखरेख का अभाव, पुराने डिब्बों, तीन लाख खाली पड़े पदों की वजह से कर्मचारियों की कमी और अन्य सुरक्षा खामियों की होना थी। मगर नरेटिव बना दिया आपराधिक षडयंत्र का।

उड़ीसा पुलिस को चेतावनी जारी करना पड़ी। इतनी भयानक मानवीय त्रासदी में शुक्रवार, मस्जिद, मुसलमान का एंगल खोजने वालों के खिलाफ। लेकिन केन्द्र सरकार द्वारा सोशल मीडिया से लेकर गोदी मीडिया तक अफवाह फैलाने वालों के खिलाफ कार्रवाई करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता उल्टे ऐसी चीजों को और हवा देने के लिए आपराधिक मामलों की जांच करने वाली ऐजेन्सी सीबीआई को सामने और ले आए।

तो सब मिलाकर कहानी (नरेटिव) क्या चल रही है कि,  एक्सिडेंट तो पहले भी होते थे मगर अब देखो सरकार कितना काम कर रही है। एक सवाल इस पर नहीं है कि रेल बजट जो अलग से आता था वह क्यों बंद कर दिया? रेल्वे पर हर एंगल से बात हो जाती थी। सिर्फ विपक्ष ही नहीं सत्ता पक्ष के लोग भी खूब सवाल उठाते थे। रेल मंत्री से लेकर, रेल्वे बोर्ड, अफसर, सब स्टाफ चौकन्ने रहते थे। अब तो यह सवाल ही नहीं आता कि रेल्वे में कितनी भर्तियां खाली पड़ी हैं। और क्यों? देश की सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी और देश में सबसे ज्यादा नौकरी देने वाले विभाग रेलवे ने भर्तियां बंद कर रखी हैं। क्यों?

इसलिए कि रेलवे बेचना है। और खरीदने वाला सेठ कम से कम लायबल्टिज (जिम्मेदारी) चाहता है। इसलिए बुजुर्गों की सबसे ज्यादा महिमा तो गाई जाती है। मध्य प्रदेश जैसे भाजपा शासित राज्य मुफ्त तीर्थ भी करवा लाते हैं। मगर जो वे अधिकार की तरह लेते थे वह वरिष्ठ नागरिक कंसेशन बंद कर दिया। समाज के और भी वर्गों को जिन्हें जरूरत होती थी उनका भी बंद कर दिया। क्यों? क्यों कि खरीदने वाले प्राइवेट सेक्टर को कोई बोझ नहीं देना था। वंदे भारत के किराए इसीलिए इतने ज्यादा रखे गए हैं कि क्रोनी कैपटलिस्टों (दोस्त सेठों) को बढ़ाने की जरूरत नहीं पड़े। उल्टे अपना बड़ा दिल दिखाने के लिए चाहें तो उसमें दस बीस रूपए कम भी कर सकते हैं।

 

मीडिया इसे जनता को बड़ी राहत, फलाने सेठ की गिफ्ट बताकर खूब धूम धड़ाका कर देगा। मगर यह नहीं बताएगा कि बालासोर रेल दुर्घटना से पहले कानपुर के पास इन्दौर पटना एक्सप्रेस की बड़ी दुर्घटना हुई थी। 150 से ज्यादा लोग मरे थे। 2016 की बात है। सात साल हो गए। खुद प्रधानमंत्री ने कहा बड़ी साजिश है। तत्कालीन रेल मंत्री सुरेश प्रभु जिनका प्रचार इन नए वाले अश्विनी वैष्णव से बहुत ज्यादा था ने एनआईए से जो आतंकवादी घटनाओं की जांच के लिए बना था से जांच की मांग की।

 

लेकिन आज तक एनआईए की रिपोर्ट नहीं आई है। मगर उसके बाद 2017 में हुए य़ूपी विधानसभा चुनाव में इस एंगल की चर्चा करके ही माहौल बनाया गया। याद कीजिए यह वही चुनाव था जिसमें प्रधानमंत्री ने अपना सबसे विवादास्पद बयान श्मशान और कब्रिस्तान दिया था।

तो यह एक उदाहरण दिया जो सबसे लेटेस्ट (अभी का) था कि मामला चाहे जितना गंभीर हो मगर कहानी एक ही चलेगी कि सब चंगा सी। बाकी सब गलत हैं मोदी जी सही हैं। चाहे महिला पहलवानों का मामला हो या मणिपुर का, चीन की घुसपैठ का, बेरोजगारी, महंगाई किसी का। मीडिया सबका बचाव करेगा। और नरेटिव यही बनाया जाएगा कि आएगा तो मोदी ही!

विपक्ष को इसी को तोड़ना है। और इसका एक ही तरीका नया नरेटिव सेट करना। शहर में भूत आया भूत घूम रहा है। कल रात यहां दिखा, परसों वहां था कि कहानी खत्म करने के लिए एक सुबह एक आदमी को बोरा लेकर नदी की तरफ निकलना पड़ता है ना! कि देखो बोरे में बंद कर लिया। नदी में फेंकने जा रहे हैं।

कहानी जो मोदी के आसपास घूम रही है उसे विपक्ष को अपनी तरफ लाना होगा। और यही विपक्ष नहीं समझ रहा। 12 जून को होने वाली विपक्षी एकता का पटना सम्मेलन निरस्त करना पड़ा। क्यों? क्योंकि कांग्रेस सहित कुछ और पार्टियों ने कहा कि उनके प्रतिनिधि इसमें शामिल होंगे। ये प्रतिनिधि क्या होता है? जनता मोदी के मुकाबले इनके नाम पर वोट देगी? पिछली बार पटना में ही सीपीआई (एमएल) के सम्मेलन में जहां सबसे पहले नीतीश ने विपक्षी एकता की बात कही थी वहां कांग्रेस ने सलमान खुर्शीद को पहुंचा रखा था। जो विपक्षी एकता पर हनीमून या सेपरेशन जैसा कोई चुटकुला सुना कर आ गए थे।

नीतीश ने बहुत सही कहा है कि प्रतिनिधियों को नहीं पार्टी अध्यक्षों को आना होगा। अगर विपक्षी पार्टियां इसे पहले सम्मेलन को गंभीरता से नहीं ले रहीं तो उन्हें 2024 लोकसभा चुनाव भूल जाना होगा। चुनाव में अब कितने दिन बचे हैं? अगर इसी नवंबर दिसबंर में चार बड़े राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना के साथ नहीं करवाया जिसकी संभावना बहुत से लोगों को दिख रही है तो निर्धारित समय के लिए भी 300 से कम दिन बचे हैं। मार्च 2024 में चुनाव की घोषणा हो जाएगी।

अगर थोड़ा पहले करवाए, समय पूर्व जिसके बारे में राजनीतिक क्षेत्रों के साथ प्रशासनिक हल्कों में भी सुगबुगाहट है तब तो कोई समय बचा ही नहीं है। और अगर बेरोजगारी, मंहगाई जैसी समस्याएं जिनके ज्यादा विकराल होने की आशंका बताई जा रही है को महत्व नहीं दिया गया और समय पर ही चुनाव करवाए गए तब भी उनके लिए विपक्ष के पास बहुत ज्यादा समय नहीं है।

मगर पता नहीं क्यों विपक्ष यह समझ नहीं रहा है? क्या अगले लोकसभा चुनाव से भी ज्यादा जिसमें हारने का मतलब है लोकतंत्र, सारी संवैधानिक संस्थाएं और खुद विपक्ष पूरी तरह तबाह हो जाना से भी ज्यादा जरूरी कोई काम है?
क्या उसे नहीं पता कि एक विपक्षी एकता का बड़ा सम्मेलन सारे नरेटिव को बदलने की क्षमता रखता है। और आज की तारीख में यही एक ब्रह्मास्त्र ऐसा है जिसका तोड़ मोदी जी के पास नहीं है।

खेल पूरा नरेटिव का हो गया है। नहीं तो राहुल ने अपनी तरफ से इन 9 सालों में कोई कसर नहीं छोड़ी है। पूरी मेहनत की। अपनी यात्रा से देश भर को नाप दिया। हर मुद्दा उठाया। लेकिन नरेटिव पूरी तरह सेट नहीं हो पा रहा। मीडिया पूरी तरह उनके खिलाफ है। वह एक नकली कहानी रोज बुनती रहती है। मोदी, मीडिया और व्ह्टसएप मिलकर एक ऐसा चक्रव्यूह बनाए हैं कि उसे भेद कर बाहर आना अकेले किसी के बस की बात नहीं है। उसका मुकाबला तो पूरी विपक्षी एकता से ही करना होगा।

कहानी जो मोदी के इर्द गिर्द घूम रही है उसे विपक्षी एकता के आसपास लाना होगा। अब जो दूसरी तारीख सम्मेलन के लिए हो उसे बहुत गंभीरता से लेने की जरूरत है। वही एक ऐसा हथियार है जिससे विपक्ष मोदी का मुकाबला कर सकता है। बाकी सब मुर्खों की कल्पनाओं जैसी बाते हैं। 2014 और 2019 ऐसे ही बिना तैयारी के हारे। और इस बार भी अगर पूरी तैयारी और विपक्षी एकजुटता नहीं होगी तो मोदी जी विपक्ष को खर पतवार की तरह काटते हुए निकल जाएंगे।

जनता उनके रथ को तभी रोकेगी जब उसे दूसरा कोई ऐसा ही चमकीला भड़कीला, विजयनाद करता हुआ रथ दिखेगा। थके हुए, श्लथ सैनिकों को कोई सेल्यूट नहीं करता है। गज सेना के सामने गज सेना और अश्वारोहियों के मुकाबले अश्वारोही ही उतारना पड़ते हैं। कैसा ही बड़ा वीर साहसी हो पैदल जाएगा तो युद्ध के लंबे मैदान में एक सिरे से दूसरे सिरे तक नहीं पहुंच पाएगा।

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