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कांग्रेस को कांग्रेसी नेताओं ने मारा – शकील अख्तर वरिष्ठ पत्रकार !

कांग्रेस हार गई! मगर क्या देश से बेरोजगारी, महंगाई, नफरत और विभाजन के सवाल भी हार गए? तीन राज्यों में ही तो कांग्रेस हारी है। लेकिन माहौल ऐसा बनाया जा रहा है कि इन्डिया गठबंधन ही खत्म हो गया। इन्डिया तो साफ साफ कहकर 2024 लोकसभा के लिए बनाया गया था। और कांग्रेस के कहने से नहीं अन्य विपक्षी दलों की पहल पर। मुम्बई में जब इन्डिया की लास्ट मीटिंग एक सितम्बर को खत्म हुई तब यह साफ कर दिया गया था कि विधानसभा चुनाव फौरन होने वाले हैं और उसमें गठबंधन नहीं होगा।वही हुआ। मगर एक चीज जो नहीं हुई कि नतीजे विपक्ष के और खासतौर से कांग्रेस के अनुकूल नहीं आए। मगर यह क्या राजनीति में पहली बार हुआ है? भाजपा जो तीन राज्यों में जीती है है वह तो हमेशा से ऐसे ही एक के बाद एक चुनाव हारती रही है। मगर कभी किसी ने उसके समाप्त होने की घोषणा नहीं की।

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बहुत से लोगो को तो पता भी नहीं होगा कि देश की आजादी के बाद 1952 में और उसके बाद अगले कई चुनावों तक भाजपा जो उस समय जनसंघ थी मुख्य विपक्षी दल भी नहीं थी। कम्युनिस्ट पार्टी कांग्रेस के बाद दूसरे नंबर की पार्टी हुआ करती थी। फिर सोशलिस्ट, स्वतंत्र पार्टी और दूसरी पार्टियां हुआ करती थीं। वाजपेयी तीन तीन लोकसभा क्षेत्रों से एक साथ चुनाव लड़ते थे और हारते थे। 1985 में लोकसभा में केवल दो सीटें भाजपा की आईं थीं। मगर न इससे भाजपा निराश हुई और न ही उसके खत्म होने की भविष्यवाणियां हुईं। उल्टे नेहरू वाजपेयी का परिचय यह कहकर विदेशी शासनाध्यक्षों से करवाते थे कि यह हमारे देश के भावी प्रधानमंत्री हैं।

 

विपक्ष को साथ लेकर चला जाता था। उसकी मदद की जाती थी। 1980 में राजनारायण बनारस से कमलापति त्रिपाटी के खिलाफ चुनाव लड़ रहे थे। चुनाव प्रचार के दौरान दोनों टकरा गए। राजनारायण ने वहीं उनसे पैसे मांगे। कहने लगे चुनाव लड़ने के लिए पैसे नहीं हैं। कमलापति ने फौरन उन्हें पैसे दिलवाए। कहा परेशान नहीं होना कम पड़ जाएं तो फिर मंगवा लेना। पहले ऐसे विपक्ष का ख्याल रखा जाता था। और यह याद रहे कि यह उन राजनारायण के लिए कांग्रेस कर रही थी जो इससे पहले 1977 में रायबरेली से इन्दिरा गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ चुके थे।मगर आज उसी पार्टी के राहुल की लोकसभा सदस्यता छीन ली जाती है। घर खाली करवा लिया जाता है। 24 -25 मुकदमे लाद दिए जाते हैं। और रोज घोषणा की जाती है कि राहुल खत्म हो गए।

मगर वही राहुल इन चार बड़े राज्यों की विधानसभा चुनाव में 40 प्रतिशत से ज्यादा वोट लाते हैं। और चार में केवल एक राज्य जीतने के बावजूद उनके वोट भाजपा को पड़े कुल वोटों से दस लाख ज्यादा होते हैं।
कांग्रेस हारी यह सही है। इन तीन राज्यों में उसे इससे बेहतर नतीजे लाना थे। मगर तीनों जगह के क्षत्रप अपने अहंकार, आत्ममुग्धता और गुटबाजी के कारण जीती हुई बाजी हार गए। गलती इन तीनों राज्यों के नेताओं की है। नहीं तो राहुल प्रियंका और पार्टी अध्यक्ष खरगे ने मेहनत में कोई कमी नहीं रखी थी।

 

कमी अगर थी तो केवल एक बात की। कि राहुल को सख्ती करना नहीं आया। राजस्थान में सबसे कम केवल 2 प्रतिशत वोटों के अंतर से कांग्रेस हारी है। और सबको मालूम है कि यह गुटबाजी का नतीजा है। पूरे पांच साल गहलोत और पायलट लड़ते रहे। और पांच साल नहीं उससे कुछ ज्यादा ही कहने चाहिए क्योंकि 2018 में चुनाव की घोषणा के बाद अक्तूबर के अंत या नबंबर के बिल्कुल शुरू में गहलोत और पायलट दस जनपथ से लड़ते हुए सीधे 24 अकबर रोड कांग्रेस मुख्यालय आए थे। और यहां प्रेस कान्फ्रेंस में भी एक दूसरे को टेड़ी निगाहों से देखते रहे थे। दरअसल 10 जनपथ में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और सोनिया ने गहलोत की मंशा के अनुरूप पायलट को विधानसभा चुनाव लड़ने को कह दिया था। पायलट प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष थे। और उनका तर्क था कि पूरे राज्य में सक्रिय रहने के कारण उनका एक सीट पर बंधना ठीक नहीं होगा। लेकिन गहलोत उन्हें बांधना चाहते थे। उस समय तक पायलट के पास कोई सुरक्षित सीट भी नहीं थी। कहां से लड़ेंगे हमारे पूछने पर वे इतने नाराज हो गए थे कि उसके बाद आज तक उन्होंने कभी बात नहीं की। इसी तरह गहलोत से भी वहीं आखिरी बात हुई थी। गहलोत तो वैसे भी जब भी मुख्यमंत्री बने हैं कभी बात नहीं करते। हार कर वापस आने के बाद ही मिलते हैं। इसलिए उनका पांच साल तक नहीं मिलना कोई नई बात नहीं है। वह तो एक प्रसंग आ गया तो उनका नाम लिख दिया। नहीं तो कांग्रेस में अधिकांश नेता ऐसे हैं जो पावर में रहते हुए चाहे वह सरकार का हो या संगठन का कभी बात नहीं करते। अपने अहंकार को वे अपना बड़प्पन समझते हैं। उन्हें पता ही नहीं होता कि वे कितने छोटे होते चले जा रहे हैं।

 

खैर वह अलग बात है। कांग्रेस की कथा अनंत है। फिलहाल यह कि इन पांच साल राहुल राजस्थान पर कोई फैसला नहीं ले पाए। न ही सख्ती कर पाए। राजस्थान देश में सबसे ज्यादा कांग्रेसी मिज़ाज का राज्य है। पांच साल की इतनी भयानक गुटबाजी और राष्ट्रीय नेतृत्व की किंकर्तव्यविमुढ़ता के बावजूद वहां केवल दो परसेन्ट कम वोट मिले। और सीटें भी 69 अच्छी खासी आई हैं। यह एक अच्छी केस स्टडी है। हालांकि कांग्रेस करेगी नहीं उसे अपनी वास्तविक कमियां देखने और दूर करने में ज्यादा इन्टरेस्ट होता नहीं है। जो चंद नेता हाईकमान के इर्दगिर्द होते हैं उनकी बात ही फाइनल होती है। इन्दिरा गांधी के बाद से कांग्रेस में जानकारी लेने उसे क्रास चेक करने लोगों से मिलने का सिलसिला खत्म हो गया है।
कांग्रेस में किसी को नहीं मालूम की राहुल, प्रियंका या पार्टी अध्यक्ष खरगे से मिलने का तरीका क्या है? मुलाकात इतनी मुश्किल बना रखी है कि बड़े नेता भी निराश हो जाते हैं। दूसरी बात जो नेताओं को सबसे ज्यादा तकलीफ देती है कि मुलाकात हो भी जाए तो कही बात पर क्या अमल हुआ इसकी कोई जानकारी नहीं मिलती है।
खैर! फिर वही कहना पड़ेगा कि कहानी अंतहीन है। जब तक कहेंगे सुनाते रहेंगे। मगर यहां शब्दों की सीमा है। तो मुख्य बात कि पार्टी नफरत नहीं फैलाती, हिंसा क्रूरता की बात नहीं करती। भारत के विचार के अनुरूप प्रेम और सदभाव की बात करती है तो जनता उसके साथ आती है।

 

अभी हिन्दू मुसलमान के नशे बहुत डूबी थी तो थोड़ी कम आई। कहीं दो परसेन्ट से तो कही तीन परसेन्ट से कमी रह गई। मगर जनता जागी है। बेरोजगारी और मंहगाई उससे अब बर्दाश्त नहीं हो रही है।इसलिए इस हार से जनता नहीं हारी है। इन्डिया गठबंधन कमजोर नहीं हुआ है। इन्डिया से जुड़े सभी विपक्षी दलों को मालूम है कि थोड़ी और जान लगा देने से वे जीत सकते हैं।और यह चुनाव 2024 लोकसभा ऐसा है जिसमें अपनी जीत से ज्यादा विपक्ष को मोदी जी की हार चाहिए। सब जानते है कि अगर मोदी जी की हैटट्रिक हो गई तो फिर भारत की राजनीति में विपक्ष का नाम भी नहीं बचेगा!

शकील अख्तर

(पत्रकार यह उनके निजी विचार है)

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