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विपक्षी एकता से दूर रहने वाले मायावती की गति को प्राप्त होंगे !

शकील अख्तर

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अब इससे फर्क नहीं पड़ता कि 23 जून को पटना कौन कौन नहीं जाता है। अगर 17 के बदले 20 दल भी पहुंच जाएं तो भी गोदी मीडिया वही राग अलापता रहेगा कि विपक्ष एक नहीं!

माहौल बन गया है। अब इसे तोड़ा नहीं जा सकता। जो विपक्षी दल पटना नहीं जाएगा समझा जाएगा कि वह मोदी के साथ है। सबकि गति मायवती वाली हो जाएगी। बीजेपी का सहयोगी दल होने की इमेज का खामियाजा उसे यह भुगतना पड़ा कि पिछले साल हुए 2022 के विधानसभा चुनाव में उसे केवल एक सीट मिली। पिछले तीन दशक में मायावती रिकार्ड चार बार यूपी की मुख्यमंत्री रही हैं। यह सौभाग्य यूपी के किसी बड़े से बड़े नेता को नहीं मिला।

चन्द्रभानु गुप्ता, नारायण दत्त तिवारी, मुलायम सिंह जैसे नेता भी तीन बार ही मुख्य मंत्री रहे। यूपी बड़े बड़े नेताओं के लिए प्रसिद्ध रहा है। प्रधानमंत्री तो गिने चुने ही बाहर से बने हैं। ज्यादातर तो यूपी से ही बने हैं। मोदी हैं तो गुजरात के मगर प्रधानमंत्री यूपी ( वाराणसी) से ही जीतकर बने हैं। यूपी के दो मुख्यमंत्री तो प्रधानमंत्री बने चरण सिंह और वीपी सिंह। इनके अलावा ये सारे मुख्यमंत्री भी राजनीति के बड़े नाम रहे गोविन्द वल्लभ पंत, सुचेता कृपलानी, कमलापति त्रिपाठी, हेमवती नंदन बहुगुणा, वीर बहादुर सिंह, कल्याण सिंह, राजनाथ सिंह, रामनरेश यादव, बाबू बनारसी दास और अब योगी आदित्यनाथ।

तो नेताओं की नर्सरी मानी जाने वाली यूपी में मायवती एक ऐसी नेता हुईं थी जिनका नाम एक बार तो अन्तरराष्ट्रीय रूप से भारत के प्रधानमंत्री के रूप में लिया जाने लगा था। 2009 में जब अमेरिका में पहली बार ब्लैक प्रेसिडेंट (बराक ओबामा) बना तो अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर यह चर्चा भी शुरू हो गई थी कि क्या दुनिया की सबसे बड़ी डेमोक्रेसी में कोई दलित भी प्रधानमंत्री बनेगा? और उस समय इसके लिए एक ही नाम लिया जा रहा था मायावती का। जो उस समय यूपी की मुख्यमंत्री थीं।

ऐसा जलवा था मायावती का। लेकिन भय वह चीज है जिससे व्यक्ति के सारे गुण शून्य हो जाते हैं। व्यकित अपनी सुरक्षा और सुविधा से आगे कुछ भी नहीं सोच पाता। वही स्थिति आजकल मायावती की है। 2014 में भाजपा के आने के बाद उसके सामने घुटने टेकने से पहले मायवती की सबसे कम सीटें बीएसपी के पहले पूरी ताकत से लड़ने वाले चुनाव 1993 में मिली थीं। 67 सीटें। इसके बाद पिछले तीस सालों में सीट इससे कम तब ही हुईं जब मायावती अपने उपर आय से अधिक संपत्ति के मामलों से डरकर भाजपा की केन्द्र सरकार के सामने शरणागत हो गईं। 2007 में तो उन्होंने बसपा के लिए सबसे ज्यादा 206 सीटें जीतकर दिखाईं थी। मगर अब वे 1 पर आ गई हैं।

यह सबक सबके लिए है। यूपी में खासतौर पर अखिलेश के लिए। जो मायावती के खत्म हो जाने के बाद खुद को यूपी की एक बड़ी ताकत समझने लगे हैं। हालांकि जा वे भी रहे हैं मायावती की राह पर ही। विपक्षी दल सत्तारूढ़ दल से दूरी बनाता है। उससे लड़ते दिखना चाहता है। मगर अखिलेश केन्द्र और राज्य में सत्तारुढ़ बीजेपी से कम और विपक्षी कांग्रेस से ज्यादा दूरी बनाते दिख रहे हैं।

अभी 19 जून को राहुल के बर्थ डे था। राहुल पर व्यक्तिगत टिप्पणी करने वाली और बहुत वरिष्ठ नेता ममता बनर्जी ने भी उन्हें शुभकामनाएं दीं। और भी बहुत से नेताओं ने दीं। सामान्य शिष्टाचार होता है। मगर अखिलेश यादव ने नहीं दी। राहुल गांधी को उसकी जरूरत नहीं है। मगर यह बताता है कि अखिलेश भी पंचतंत्र की कहानी के अनुरूप महाजन येन गत: स पन्था: का आंखे बंद करके अनुसरण कर रहे हैं। मायावती ने नहीं दी। उन्होंने भी नहीं दी। वैसे दोनों बहुत सारे नेताओं को देते हैं। अपनी पार्टी के बाहर के। पार्टी में तो दोनो की स्थिति सुप्रीम बॉस की है। इसलिए वहां तो किसी को महत्व देने का सवाल ही नहीं।

खैर तो यह मायावती का और अखिलेश का जिक्र इसलिए किया क्योंकि एक तो यह उस यूपी के नेता हैं। जहां सबसे ज्यादा 80 लोकसभा सीटें हैं। और दूसरी बात इसलिए कि इतनी बड़ी ताकत के सूबे में कोई मजबूत विपक्ष नहीं है। वैसे तो यह कांग्रेस के लिए सुनहरे अवसर की बात है। अगर इस का फायदा उठा सके। यूपी में अगर वह समर्थ विपक्ष बन जाए तो नेक्स्ट सत्ता की स्टेज ज्यादा मुश्किल नहीं होगी। मुख्य विपक्षी दल बनना ज्यादा कठोर परिश्रम मांगता है। और सिर्फ मेहनत नहीं सही रणनीति के साथ। विपक्ष का स्थान बिल्कुल खाली है। और भाजपा बिल्कुल नहीं चाहती कि यहां कांग्रेस आए। बस यही मैसेज जनता तक पहुंचाना जरूरी है कि सत्तारूढ़ पार्टी विपक्ष के स्थान पर मायावती, अखिलेश या किसी को भी चाहती है। मगर कांग्रेस को नहीं। जनता को जैसे ही यह अहसास होगा कि सरकार भी खुद और विपक्ष भी अपनी मर्जी का तो वह फिर मन से सत्तारूढ़ पार्टी के नापंसद वाले को मजबूत विपक्ष बनाने में लग जाएगी।

और तीसरी बात यह मायावती की कहानी हीरो से जीरो तक इसलिए सुनाई है कि आज जो दूसरे विपक्षी नेता अपने राज्य में सत्ता पाकर यह समझ रहे है कि विपक्ष की राजनीति को वे जिस तरफ चाहे मोड़ देंगे वे समझ ले कि आज जो विपक्षी एकता के साथ नहीं आया जनता उसे सीधे तौर पर मोदी जी के साथ मान लेगी। और मोदी जी के साथ मानकर जनता ने मायवती का क्या हाल किया है यही हमने उपर विस्तार से बताया।

विपक्षी नेता अगर अभी भी यह समझ रहे हैं कि इधर भी उधर भी रहने का रास्ता खुला रहेगा तो वे बहुत बड़ी गलतफहमी में हैं। 23 जून को पटना सम्मेलन शुरु होते ही यह साफ हो जाएगा कि कौन कहां है। जो पटना में है वह विपक्षी एकता के साथ है। जो नहीं है वह मोदी जी के साथ है। बीच की कोई स्थिति नहीं है।

तीसरे मोर्चे का नाटक खत्म हो जाएगा। और यह स्थिति कांग्रेस के लिए बहुत अनुकूल बनेगी। उसके लिए सीधा भाजपा से मुकाबला करना कभी मुश्किल नहीं रहा। मुश्किल तब होती है जब भाजपा उसके सामने एक मोर्चा बना लेती है। जैसे 1967, 1977, 1989 में बनाया। और 2012 में अन्ना हजारे को लाकर लेफ्ट, सिविल सोसायटी और सब कांग्रेस विरोधियों को जोड़ लिया।

या तब होती है जब 1996 जैसा तीसरे मोर्चा बनने लगता है। नहीं तो 1952 से लेकर तो कई बार और अभी 2004 में जब कांग्रेस का सीधा मुकाबला भाजपा से हुआ तो हमेशा वही जीती। हाल के विधानसभा चुनावों में भी चाहे वह हिमाचल का रहा हो चाहे कर्नाटक का यही ट्रेंड रहा। लेकिन भाजपा इसे अच्छी तरह समझती है। और वह आमने सामने की लड़ाई में नहीं फंसती। गुजरात में वह आम आदमी पार्टी, मायावती, ओवेसी सब को ले जाती है।

लेकिन अब पटना सम्मेलन के बाद यह शायद संभव नहीं हो पाए। क्योंकि जनता में इस बार सीधा मैसेज चला जाएगा कि कौन कहां है। जिसे भाजपा को वोट देना होगा सीधे देगा। कांग्रेस का वोट काटने के लिए भाजपा को प्राक्सी (अप्रत्यक्ष) समर्थन नहीं मिलेगा। वोट कटवा पार्टियों के लिए मुश्किल हो जाएगी। पटना सम्मेलन का यह सबसे बड़ा फाल आउट ( धमाका) होगा। 2024 में विपक्ष और मोदी का आमने सामने मुकाबला।

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