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जाति जनगणना से ध्यान हटाने के लिए पत्रकारों पर छापे- शकील अख्तर

जब सारा मीडिया आपके समर्थन में हो तब कुछ जनता की आवाजें उठाने वालों का क्या मतलब? लेकिन है! जैसे ही बिहार से जातिगत जनगणना के आंकड़े आए उसकी अगली सुबह ही कुछ पत्रकारों लेखकों के यहां छापे पड़ गए। उनके लैपटाप मोबाइल जप्त कर लिए गए और किताबों की अलमारियां खंगाली गईं। शायद सबसे ज्यादा डर खिताबों से ही लगता है कि ये कौन सी किताबें पढ़ते हैं।

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बाम्बे हाईकोर्ट के जज ने टालस्टाय के मशहूर उपन्यास वार एंड पीस को आपत्तिजनक कहा ही था। साथ में यह भी सवाल किया था कि इसे घर में क्यों रखते हो? वह तो रूस के लेखक थे। हमारे मित्र देश के। अगर चीन के किसी लेखक की किताब घर में निकल आए तो फिर तो देशद्रोह का केस पक्का। चीन के राष्ट्रपति को झुला झुलाया जा सकता है। उनके घुसपैठ करने पर हमारे सैनिकों को शहीद करने पर कहा जा सकता है कि न कोई आया था और न कोई है!

गोदी मीडिया ही फैसला सुना देगी।

अभी दीवाली आ रही है उसके लिए बड़ी तादाद में चीन से लड़ियां मंगाई जा रही हैं, उस पर कोई आपत्ति नहीं हैं। लेकिन अगर चीन के विश्व विख्यात लेखक लू शून की लघु कहानियों की भी हिन्दी या अंग्रेजी में अनुवादित कोई किताब मिल जाए तो फिर शायद कोर्ट की टिप्पणी की भी जरूरत नहीं पड़ेगी गोदी मीडिया ही फैसला सुना देगी। पत्रकारों लेखकों पर नया केस भी चीन के हवाले से ही बनाया गया है।

गोदी मीडिया को सूत्र बता रहे हैं और वह सूत्रों के हवाले से कह रहा है कि यह प्रेस की स्वतंत्रता का मामला नहीं है। देश की अखंडता का है। बहुत ही गंभीर आरोप लगा रहा है। चीन के पक्ष में किसने प्रचार किया? पब्लिक फोरम पर चीन के प्रचार या समर्थन की कभी कोई बात किसी ने नहीं देखी। हो भी नहीं सकती। हर समझदार पत्रकार यह जानता है कि विदेश नीति के मामले में भारत सरकार का पक्ष ही देश का पक्ष होता है। और पत्रकार क्या विपक्ष भी मानता है। इसलिए कभी विदेश नीति पर संसद में भी चर्चा नहीं होती है।

हां आजकल गोदी मीडिया का मामला अलग है। वह कुछ भी कर सकता है। पहले एक चैनल की एंकर ने चीन के मामले में हमारी बहादुर सेना को ही दोषी ठहरा दिया। दरअसल वह घुसपैठ के मामले में मोदी सरकार को बचाना चाहती थी। तो उसने बोल दिया कि घुसपैठ रोकना सेना का काम है सरकार का नहीं। मतलब घुसपैठ हुई है तो दोषी सेना है। सरकार से क्या मतलब!

नफरत और विभाजन फैलाने के लिए बोलता है।

अब आजकल वह कनाडा के मामले में इस तरह बोल रहा है जैसे वहां कोई भारतीय रहता ही नहीं हो! उसके हितों सुरक्षा से इन्हें कोई मतलब नहीं है। वहां की सेना की गिनती बता रहे हैं। जैसे यह जाकर उसे तबाह कर आएंगे। याद है ऐसे ही एक समय चीनी सैनिकों की हाइट बता रहे थे। कनाडा का मामला बहुत सेंसटिव है। हमारी विदेश नीति का सारा अनुभव लगा हुआ है। मामला केवल कनाडा तक सीमित नहीं है। अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देश भी इनवाल्ब हो रहे हैं। और हमारा मीडिया इस तरह बोल रहा है जैसे देश में नफरत और विभाजन फैलाने के लिए बोलता है।

देश की व्यापारिक राजधानी मुम्बई से हर दूसरे या तीसरे घर का लड़का या लड़की कनाडा में है। पढ़ रहा है या काम कर रहा है। इसी तरह देश के हर हिस्से से वहां पढ़ने के लिए लड़के लड़कियां गए हुए हैं। मगर गोदी मीडिया को क्या? वह कह रहा है कि उसके पास तो परमाणु बम भी नहीं है! इसकी हिंसक और अमानवीय मनोवृति देखिए। परमाणु बम का जिक्र करके यह क्या कहना चाहता है? सरकार मामले को देख रही है। विपक्ष सरकार का सहयोग कर रहा है। मगर मीडिया युद्ध चाह रहा है।

करीब बारह हजार किलोमीटर दूर के देश के साथ। उस देश से जहां 16 लाख से ज्यादा भारतीय हैं। और जो नाटो का सदस्य है। अब नाटो का मतलब क्या है यह तो उस मीडिया को नहीं समझाया जा सकता जिसका बड़ा हिस्सा युक्रेन में जाकर युद्ध देख आया है। नाटो मतलब अभी तक रूस से लड़ सकने की क्षमता। दुनिया का सबसे बड़ा सैन्य संगठन।

सरकारी चिकित्सा जो खत्म हो गई है।

खैर तो एक वह मीडिया है जिसे भारत की जनता से कोई मतलब नहीं। केवल सरकार का पक्ष रखना है। नफरत और विभाजन भरी स्टोरियां चलाना हैं। जनता की कोई मांग आवाज सरकार तक नहीं पहुंचाना है। बेरोजगारी जो आज सबसे बड़ा मुद्दा है। महंगाई जिसने जनता की कमर तोड़ रखी है। सरकारी चिकित्सा जो खत्म हो गई है। प्राइवेट में गरीब मरने भी नहीं जा सकता। मरने के बाद इतना बिल बताते हैं कि गरीब के परिवार वालों के शव लेना भी मुश्किल हो जाता है। सरकारी स्कूल खत्म कर दिए हैं। शिक्षा इतनी मंहगी कर दी है कि गरीब के बच्चे पढ़ ही नहीं सकते। मगर यह सारे मुद्दे मीडिया के लिए कोई महत्व नहीं रखते। उसके लिए सबसे बड़ा मुद्दा हिन्दू मुसलमान है।

लेकिन अब जैसे ही बिहार से जातिगत जनगणना के आंकड़े आए मीडिया, सरकार, भाजपा सब हिल गए। अब राजनीति राहुल के “ जितनी आबादी उतना हक “ पर जाती दिखी। सब अखबारों मीडिया को जाति के आंकड़े दिखना पड़े। पिछड़ा, अनुसूचित जाति, जनजाति को मिलाकर 85 प्रतिशत हो रहे हैं। मीडिया भाजपा ने इसमें भी कितने हिन्दू कितने मुसलमान बताने की कोशिश की। मगर यह आंकड़े तो सबको मालूम थे। हर जनगणना में आते हैं। हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध एससी, एसटी सबकी गिनती मालूम है। नहीं मालूम थी तो केवल ओबीसी की। राहुल ने यही कहा था कि मैं मालूम करके रहुंगा। और नीतीश तेजस्वी की सरकार ने यह काम कर दिया। यह सवर्णों के खिलाफ नहीं है।

चीन से पैसे लेने के आरोप तो हास्यास्पद है।

किसी ने उन सांप्रदायिक ताकतों की तरह जैसा उन्होंने गुजरात दंगों में और बाद में हर जगह दंगाइयों को भड़काते हुए लालच देते हुए कहा कि मुसलमानों के ये जमीन जायदाद तुम्हें मिल जाएगी नहीं कहा। कोई कह भी नहीं सकता। सामाजिक न्याय का मतलब कहीं दूसरी जगह अन्याय नहीं है। छीनना नहीं। भविष्य में रिसोर्सेज का न्यायपूर्ण बंटवारा है। ताकि देश का विकास इकतरफा न हो। मगर जातिगत जनगणना के आंकड़े आते ही मोदी सरकार को लगा कि अब राजनीति का नरेटिव दूसरी तरफ न मुड़ जाए। तो उसने पत्रकारों पर एक बड़ा हमला बोलकर चीन का पैसा और उसके प्रचार की नई कहानी शुरू कर दी। मगर यह कितनी चलेगी कहना मुश्किल है।

पत्रकार उर्मिलेश, भाषा सिंह, अभिसार शर्मा, ओनिंद्धो चक्रवर्ती, प्रांजयगुहा ठाकुरता, सोहेल हाशमी, प्रबीर पुरकायस्थ, संजय राजौरा, कार्टुनिस्ट इरफान के यहां छापे डाले गए। यह सब जाने पहचाने नाम हैं। इनका सारा काम लोगों के सामने है। इनमें से किसी के लिए भी कोई यह नहीं कह सकता कि इन्होंने देश हित से कभी समझौता किया है। चीन से पैसे लेने के आरोप तो हास्यास्पद है। सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ लिखना अलग बात है। यह काम तो इनमें से शायद सबने मनमोहन सिंह सरकार के समय भी किया था। और ज्यादा जोर से। अन्ना आंदोलन का समर्थन करके।

मीडिया बहुत हद तक डरा हुआ है।

मीडिया बहुत हद तक डरा हुआ है। आज जो मोदी सरकार का समर्थन वह कर रहा है उसमें अगर जरा सी कमी भी रह जाती है तो वह विरोध की तरह देखी जाती है। एक चैनल से दो एंकरों को इसी अपराध में निकलवा दिया कि किसी मुद्दे पर उतना समर्थन नहीं किया जितना बाकी लोगों ने किया था। एक दूसरे चैनल के एंकर को तो आन एयर ही याद दिला दिया गया कि जेल हो आए हो!

तो मीडिया को और ज्यादा डराए जाने के लिए यह छापे हैं। वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत 161 वें स्थान पर है। हर साल नीचे खिसकता जा रहा है। पिछले साल 150 पर था। उससे पिछले साल 142 पर। मतलब प्रेस की आजादी लगातार कम होती जा रही है। 180 देशों की लिस्ट है। अगर ऐसा ही रहा तो अगले साल बिल्कुल नीचे ही न आ जाए। मतलब जहां प्रेस की आजादी सबसे कम है। अगर ऐसा हुआ तो दुनिया की निगाहों में हमारा सम्मान बहुत गिर जाएगा। अमेरिका, युरोप, इंग्लैंड प्रेस की स्वतंत्रता को लोकतंत्र का सबसे बड़ा पैमाना मानते हैं। कहते हैं प्रेस की आजादी नहीं तो लोकतंत्र नहीं!

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं , यह उनके निजी विचार हैं )

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