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एक ठेठ देहाती इंसान जिसने बनाई अनोखी पहचान – अदम गोंडवी

एक ठेठ देहाती इंसान जिसने बनाई अनोखी पहचान – अदम गोंडवी

(Rohit Pandey)

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मुशायरों में ,घुटनों तक मटमैली धोती, सिकुड़ा मटमैला कुरता और गले में सफ़ेद गमछा डाले एक ठेठ देहाती इंसान जिसपर आपका शायद ध्यान ही न गया हो यदि अचानक माइक पे आ जाए और फिर ऐसी रचनाएँ पढे की आपका ध्यान और कहीं जाए ही न तो समझिए वो इंसान और कोई नहीं अदम गोंडवी थे। उनका जन्म गोण्डा जनपद के कर्नलगंज तहसील अंतर्गत ग्राम आटा परसपुर में हुआ था. उनकी निपट गंवई अंदाज़ में महानगरीय चकाचौंध और चमकीली कविताई को हैरान कर देने वाली अदा सबसे जुदा और विलक्षण थी। जिसका अंदाजा उनकी इस रचना से लगाई जा सकती है….

किसको उम्मीद थी जब रौशनी जवां होगी कल, के बदनाम अंधेरों पे मेहरबां होगी

खिले हैं फूल कटी छातियों की धरती पर फिर मेरे गीत में मासूमियत कहाँ होगी

आप आयें तो कभी गाँव की चौपालों में मैं रहूँ या न रहूँ भूख मेज़बां होगी

अदम शहरी शायर के शालीन और सुसंस्कृत लहजे में बोलने के बजाय वे ठेठ गंवई दो टूकपन और बेतकल्लुफी से काम लेते हैं। उनके कथन में प्रत्यक्षा और आक्रामकता और तड़प से भरी हुई व्यंग्मयता है.

वस्तुतः ये गज़लें अपने ज़माने के लोगों से ‘ठोस धरती की सतह पर लौट ‘ आने का आग्रह कर रही हैं. उनकी दो पुस्तकें हैं एक धरती की सतह पर दूसरी समय से मुठभेड़.

ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नजारों में मुसलसल फन का दम घुटता है इन अदबी इदारों में

अदीबों ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ मुलम्मे के सिवा क्या है फ़लक के चाँद तारों में

अदम जी की शायरी में आज जनता की गुर्राहट और आक्रामक मुद्रा का सौंदर्य मिसरे-मिसरे में मौजूद है, ऐसा धार लगा व्यंग है के पाठक का कलेजा चीर कर रख देता है.आप उनकी किताब का कोई सफह पलटिए और कहीं से भी पढ़ना शुरू कर दीजिए, आपको मेरी बात पर यकीन आ जायेगा.

काजू भुने प्लेट में व्हिस्की गिलास में, उतरा है रामराज विधायक निवास में, पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत, इतना असर है खादी के उजले लिबास, में जनता के पास एक ही चारा है बगावत यह बात कह रहा हूँ मैं होशो हवाश में

अदम साहब की शायरी में अवाम बसता है उसके सुख दुःख बसते हैं शोषित और शोषण करने वाले बसते हैं. उनकी शायरी न तो हमें वाह करने के अवसर देती है और न आह भरने की मजबूरी परोसती है. सीधे सच्चे दिल से कही उनकी शायरी सीधे सादे लोगों के दिलों में बस जाती है.

बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को

भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को

सब्र की इक हद भी होती है तवज्जो दीजिए

गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरखान को

शबनमी होंठों की गर्मी दे न पाएगी सुकून

पेट के भूगोल में उलझे हुए इंसान को

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