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जब इंदिरा गांधी संसद से निष्कासित हुईं: के. विक्रम राव !

दादी भी पोते की तरह सांसदी गुमा चुकी हैं। यह बात 1978 की है। ठीक 44 वर्ष गुजरे (21 नवम्बर 1978) एक सियासी आँधी आयी थी। रायबरेली में जख्मी होकर, इंदिरा गांधी चिकमगलूर (कर्नाटक) से चुनाव जीती थीं। कवि श्रीकांत वर्मा, (पहले लोहियावादी, बाद में फिर इंदिराभक्त) ने कारगर नारा गढ़ा था, “एक शेरनी सौ लंगूर, चिकमगलूर-चिकमगलूर।” जो बयार थी, बवंडर बन गयी। तुर्रा यह कि जनता पार्टी वाले उनके हरीफ थे पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री वीरेन्द्र पाटिल जो हारकर बाद में फिर इंदिरा कांग्रेस में भरती हो गये थे। आया राम-गया राम जैसा।

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तब तक इस उपचुनाव के उपसंहार में आपातकाल से उपजा गैर कांग्रेसवाद बारह बरस तक दफन हो गया। दो प्रधान मंत्री क्रमशः फर्श पर आ गये। तीन कांग्रेस अध्यक्ष बेदखल हो गये। दो कांग्रेसी विपक्ष के नेता पैदल हो गये। इंदिरा गांधी ने दो साल में ही यह सारा काम तमाम कर डाला। यह घटना विश्व संसदीय इतिहास में बेजोड़ है। कालखंड था सन 78 की दीपावली से चौदह माह बाद मकर संक्रांति (14 जनवरी 1980) तक का।

 

 

चिकमगलूर से उपचुनाव जीतकर पूर्व प्रधानमंत्री को संजीवनी मिली थी। वह 1978 में कर्नाटक के चिकमगलूर से 60,000 से ज्यादा मतों उपचुनावों में जीतकर लोकसभा में पहुंचीं। उनका लोकसभा में आना मोरारजी देसाई के लिए बड़ा झटका था। जो उन्हें सख्त नापसंद करते थे। उस चुनाव से पहले उन्होंने जनता से आपातकाल के लिए सार्वजनिक माफी मांगने का बयान दिया।

 

जब वह लोकसभा में पहुंचीं तो 18 नवंबर को उनके खिलाफ अपने कार्यकाल में सरकारी अफसरों का अपमान करने और पद के दुरुपयोग के मामले में खुद प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने प्रस्ताव पेश किया। यह पास हो गया। हालांकि इस पर सात दिनों तक बहस चली। प्रस्ताव के पास होने पर इंदिरा गांधी के खिलाफ विशेषाधिकार समिति बनी, जिसे इंदिरा के खिलाफ पद के दुरुपयोग मामले सहित कई आरोपों पर जांच करके एक महीने में रिपोर्ट देनी थी।

 

 

इंदिरा की लोकप्रियता बढ़ने लगी थी हालांकि मोरारजी देसाई के बहुत से सहयोगी ऐसा नहीं चाहते थे, वो देख चुके थे कि देश में फिर इंदिरा गांधी की लोकप्रियता तो बढ़ रही बढ़ ही रही है साथ ही उन्हें सहानुभूति भी मिलने लगी है। तब इंदिरा गांधी 61 साल की थीं। विशेषाधिकार समिति ने पूर्व प्रधानमंत्री की लोकसभा की सदस्यता पर विचार किया। समिति इस निष्कर्ष पर पहुंची कि इंदिरा के खिलाफ लगे आरोप सच हैं। उन्होंने विशेषाधिकारों का हनन किया है और सदन की अवमानना भी की, लिहाजा उन्हें संसद से निष्कासित किया जाता है और गिरफ्तार करके तिहाड़ भेजा जाता है। तब इंदिरा ने कहा, उन्हें ये सजा केस के तथ्यों के आधार पर नहीं बल्कि पुरानी दुश्मनी निकालने के खातिर दी गई है।

 

मोरारजी देसाई ने कहा कि इंदिरा के खिलाफ आरोप गंभीर थे लिहाजा उन्हें जेल जाना ही होगा और सदस्य रहने का तो उन्हें हक ही नहीं। इसके बाद दो बातें हुईं। इंदिरा गांधी ने कहा कि वह फिर चुनाव लड़कर और जीतकर लोकसभा में पहुंचेंगी। हालांकि जनता पार्टी सरकार अपने अंतविरोधों से खुद टूटने और कमजोर होने लगी। तीन साल में ही ये सरकार गिर गई। 1980 में देश ने फिर मध्यावधि चुनाव का मुंह देखा। अब तक जनता ने आपातकाल से इंदिरा को लगता है कि माफ़ कर दिया था। वह प्रचंड बहुमत से जीत हासिल करके फिर लोकसभा में पहुंची। सरकार बनाई और प्रधानमंत्री भी बनीं।

दिल्ली में इतना उलटफेर करने से भी इंदिरा गांधी नहीं अघायी तो गऊपट्टी वाले प्रदेशों के जनता पार्टी वाले मुख्यमंत्रियों को दरबदर कर दिया। तब लखनऊ में “टाइम्स ऑफ इंडिया” के संवाददाता के नाते मैं नारायणपुर (देवरिया जनपद) में पुलिसिया बलात्कार की रिपोर्टिंग के लिये (13 जनवरी 1980) गया था। प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी जांच करने आयीं थीं। तब के स्वमभू “प्रधानमंत्री” संजय गांधी नारायणपुर का दौरा कर चुके थे। बयान भी दिया था कि, “नारायणपुर की हर युवती तथा स्त्री का बलात्कार हो चुका है”। शादी होना मुश्किल पड़ गया था।

प्रधानमंत्री की देवरिया में प्रेस कानफ्रेंस हुई। मैंने पूछा, “इंदिरा जी, क्या बाबू बनारसी दास की सरकार को बर्खास्त करेंगी ?” उन्होने जवाब नहीं दिया वरन सवाल किया, “क्या उन्हें सत्ता में रहने का अधिकार है ?” लखनऊ लौटकर मैंने मुख्यमंत्री, उनके मंत्री मुलायम सिंह यादव, बेनी प्रसाद वर्मा आदि को बता दिया था कि उनके प्रस्थान की बेला आ गयी है। डेढ़ दशकों तक इंदिरा गांधी की रिपोर्टिंग करके मुझे अनुभव हो गया था कि जब वे सवाल का जवाब सवाल में देती हैं और दायीं कनखी झपकाती है, तो निहितार्थ “हाँ” में होता है। फिर सर्वविदित है कि कोई भी महिला है कभी भी सीधे “हाँ” नहीं कहती है। बस ऐसा ही हुआ।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं यह उनके निजी विचार हैं)

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