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राजीव गांधी-नरसिम्हा राव ने की थी महिला आरक्षण विधेयक की पहल !

संसद के विशेष सत्र के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय कैबिनेट की बैठक हुई. सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार , महिला आरक्षण बिल को केंद्रीय कैबिनेट की मंजूरी मिल गई है. अब इस बिल को विशेष सत्र के दौरान संसद में पेश किया जाएगा. संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को 33 फीसदी कोटा देने वाले इस बिल के बीज पूर्व प्रधानमंत्रियों राजीव गांधी और नरसिम्हा राव की सरकार में बोए गए थे.

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सब से पहले एचडी देवेगौड़ा सरकार ने की मांग
बता दे कि साल 1989 में राजीव गांधी ने पंचायती राज और नगरपालिकाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई आरक्षण के लिए संविधान संशोधन विधेयक पेश किया, लोकसभा में पारित किया गया, लेकिन राज्यसभा में यह पारित नहीं हो सका. 1993 में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने विधेयक पेश किया और यह दोनों सदनों में पारित हो गया। संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण की मांग सबसे पहले 1997 में पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा की सरकार में उठी थी, लेकिन यह पारित नहीं हो सकी. साल 2008 में यूपीए सरकार ने दोबारा इस बिल को पेश किया और 2010 में इसे राज्यसभा में मंजूरी मिल गई, लेकिन इसे लोकसभा में पेश नहीं किया जा सका.

 

महिलाओं के आरक्षण के लिए संशोधन विधेयक पेश
साल 1987 में राजीव गांधी की सरकार में बनी पूर्व केंद्रीय मंत्री मारगरेट अल्वा की अध्यक्षता में 14 सदस्यीय कमेटी ने 1988-2000 के लिए महिलाओं के लिए एक प्लान पेश किया, जिसमें कमेटी ने 353 सुझाव दिए. निर्वाचित निकायों में महिलाओं के आरक्षण का सुझाव भी इसमें शामिल था. इस पर राजीव गांधी सरकार में पंचातयी राज और नगरपालिकाओं में महिलाओं के आरक्षण के लिए संशोधन विधेयक पेश किया गया, जो लोकसभा में पारित हो गया, लेकिन राज्यसभा में इसे मंजरी नहीं मिली. फिर नरसिम्हा राव की सरकार में इसे मंजूरी मिली और महिलाओं के लिए पंचायती राज और नगरपालिकाओं के लिए चुनावों में महिलाओं के रिजर्वेशन के लिए कानून बन गया. कई राज्यों में ओबीसी, एससी और एसटी समुदाय की महिलाओं को भी निकाय चुनावों में कोटा दिया गया.

 

1996 में संशोधन विधेयक हुआ पेश
निकाय चुनावों के बाद लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं के एक तिहाई आरक्षण की मांग उठी और पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा की सरकार में पहली बार इस पर संशोधन विधेयक पेश किया गया. 12 सितंबर, 1996 को उन्होंने संशोधन विधेयक पेश किया, जिसे संसद में खुलकर समर्थन मिला और कई सांसदों ने उसी दिन इस पर अपनी सहमति दे दी. हालांकि, ओबीसी कैटेगरी के सांसदों ने इसमें बदलाव की मांग उठाई. देवेगौड़ा ने भी सांसदों की मांग पर गौर करते हुए उसी दिन सर्वदलीय बैठक की और बिल सीपीआई के पूर्व नेता गीता मुखर्जी के नेतृत्व वाली संसद की चयन समिति को भेज दिया गया. चयन समिति में 21 सदस्य लोकसभा के और 10 राज्यसभा सांसदों के थे. इनमें एनसीपी नेता शरद पवार, जेडीयू के सीएम नीतीश कुमार, टीएमसी की ममता बनर्जी, उमा भारती और स्वर्गीय सुषमा स्वराज भी शामिल थे.

 

बिल को लेकर समर्थन पाने में असमर्थ रही थी गुजराल सरकार
पैनल ने पाया कि एससी और एसटी कोटा के लिए तो आरक्षण है लेकिन ओबीसी के लिए प्रावधान न होने के कारण बैकवर्ड क्लास की महिलाओं को आरक्षण का लाभ नहीं मिल पाएगा इसलिए पैनल ने ओबीसी के लिए आरक्षण का सुझाव दिया ताकि ओबीसी महिलाओं को भी रिजर्वेशन का लाभ मिले. इसके बाद 9 दिसंबर, 1996 को बिल दोनों सदनों में पेश किया गया, लेकिन पास नहीं हो सका. साल 1997 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदर कुमार गुजराल की सरकार में फिर से यह बिल चर्चाओं में आया लेकिन बिल पर सांसदों में अलग-अलग राय होने के कारण यह एक बार फिर पारित होने से रह गया.

 

अटल सरकार में हुआ था बिल पर हाई-वॉल्टेज ड्रामा
12 जुलाई, 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में बिल को लेकर भारी हंगामा देखने को मिला. ममता बनर्जी और सुमित्रा महाजन जैसे सासंदों ने महिला आरक्षण बिल लाने की मांग की और जब तत्कालीन कानून मंत्री एम थांबी दुरई संसद में बिल पेश कर रहे थे तो राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के सांसद सुरेंद्र प्रकाश यादव ने उनके हाथ से बिल छीन लिया. उन्होंने और उनकी पार्टी के अजीत कुमार मेहता ने बिल और उसकी कॉपियां फाड़ डालीं. ओबीसी के साथ मुस्लिम महिलाओं के आरक्षण की भी मांग उठने लगी. बिल को लेकर इतना ज्यादा हंगामा हुआ था कि सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच खूब बहसबाजी हुई.

 

जब ममता ने पकड़ा था सपा सांसद का कॉलर
दिसंबर महीने में भी बिल को लेकर संसद में खूब हंगामा हुआ था. स्पीकर की कुर्सी की ओर जाने से रोकने के लिए ममता बनर्जी ने समाजवादी पार्टी के सांसद दरोगा प्रसाद सरोज का कॉलर पकड़ लिया था. आरजेडी और सपा के साथ बीजेपी के ओबीसी सांसदों ने भी बिल का कड़ा विरोध किया था. मुलायम सिंह यादव और आरजेडी के रघुवंश प्रसाद तो बिल के इतने ज्यादा खिलाफ थे कि उन्होंने इसके विरोध में खूब प्रदर्शन किए और इसे गैरकानूनी करार दिया. अप्रैल, 2000 में चुनाव आयोग ने सभी दलों से बिल पर उनकी राय मांगी और 7 मार्च को वाजपेयी सरकार की ओर से एक बार फिर इस पर सहमति के लिए पेश किया गया, लेकिन उसे इसमें सफलता नहीं मिल पाई.

 

 

2004 में यूपीए ने फिर पेश किया था बिल
साल 2004 में यूपीए की सरकार आई और 2005 में पूर्व पीएम मनमोहन सिंह ने एनडीए और अन्य दलों के साथ बैठक की और महिला आरक्षण बिल से संबंधित तीन प्रस्तावों पर गौर किया गया. पहला प्रस्ताव था कि बिल को फिर से पेश किया जाए, दूसरा विधानमंडलों की संख्या बढ़ाना ताकि अनारक्षित सीटों की वास्तिवक संख्या कम न हो और तीसरा एम एस गिल फॉर्म्यूला यानि चुनाव आयोग के सुझाव के मुताबिक, राजनीतिक दलों के लिए यह अनिवार्य किया जाए कि वे विधानसभाओं और लोकसभा चुनाव के लिए एक तय न्यूनतम प्रतिशत महिला उम्मीदवारों को चुनाव में उतारें.

 

2008 में राज्यसभा में बिल को मिल गई थी मंजूरी
6 मई, 2008 को यूपीए सरकार की ओर से संशोधन बिल राज्यसभा में पेश किया गया और स्टेंडिंग कमेटी को भेजा गया. 17 दिसंबर, 2009 को स्टेंडिंग कमेटी ने इस पर सहमति जताई और प्रधानमंत्री की मंजूरी के बाद मार्च, 2010 में बिल को राज्यसभा में भी हरी झंडी मिल गई. हालांकि, बिल लोकसभा में नहीं लाया जा सका. कांग्रेस नौ सालों से मांग कर रही है कि राज्यसभा में पारित महिला आरक्षण बिल लोकसभा में भी पारित किया जाना चाहिए. कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने यह भी कहा है कि राज्यसभा में पेश या पारित बिल समाप्त नहीं किए जाते इसलिए यह बिल अभी भी जीवित है

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